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________________ १०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ दिगम्बरपक्ष अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के आचारांगादि उपर्युक्त नाम दिगम्बरपरम्परा में भी प्रसिद्ध हैं। अतः प्रेमी जी का उपर्युक्त हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है। इसलिए उसके द्वारा किया गया यह निर्णय भी असत्य है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। इस तरह हम देखते हैं कि यापनीय-पक्षधर विद्वानों ने भगवती-आराधना को यापनीयकृति सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, उनमें से अनेक का तो अस्तित्व ही नहीं है अर्थात् वे असत्य हैं, और अनेक में हेतु का लक्षण घटित नहीं होता, कोई प्रकरणसम हेत्वाभास है, कोई साधारणानैकान्तिक, तो कोई बाधितविषय। ऐसा कोई भी हेतु उपलब्ध नहीं, है, जिससे यह सिद्ध हो कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। जितने भी अन्तरंग और बहिरंग प्रमाण उपलब्ध होते हैं, वे उसे दिगम्बरग्रन्थ ही सिद्ध करते हैं। अतः वह दिगम्बर ग्रन्थ ही है और उसके कर्ता शिवार्य दिगम्बराचार्य ही हैं, इसमें सन्देह के लिए स्थान नहीं है। उपसंहार दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण सूत्ररूप में अंत में उन समस्त प्रमाणों को सूत्ररूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनसे सिद्ध होता है कि भगवती-आराधना यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं १. भगवती-आराधना में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति, इन यापनीय-मान्यताओं का निषेध किया गया है। २. परिग्रह की परिभाषा यापनीयमत के विरुद्ध है। ३. वेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं, जो यापनीयों को अमान्य हैं। ४. बंध और मोक्ष की सम्पूर्ण व्यवस्था गुणस्थानाश्रित बतलायी गयी है। यह यापनीयमत में स्वीकृत गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिक-मुक्ति एवं द्रव्यस्त्री-मुक्ति के विरुद्ध है। __५. मुनि के लिए दिगम्बरमत में मान्य मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान किया गया है। ६. लोच के द्वारा ही केशत्याग का नियम निर्धारित किया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों में छुरे या कैंची से भी मुण्डन की अनुमति दी गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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