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________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / १०१ गाथा (११२३)१३० की टीका में 'हरिततणोसहिगुच्छा' आदि दो गाथाएँ बृहत्कल्पसूत्र से ग्रहण की गई हैं। अतः श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ उद्धृत होने से यह यापनीयग्रन्थ है। (जै.सा.इ./ द्वि.सं./पृ.७३)। दिगम्बरपक्ष उपर्युक्त गाथाएँ भगवती-आराधना में नहीं, अपितु उसकी टीका में उद्धृत की गई हैं। इससे मूलग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। टीकाकार ने तो अन्य ग्रन्थों से भी अनेक नीति के श्लोक उद्धृत किये हैं, जैसे 'संसारसागरम्मि' (४४८) इस गाथा की टीका में भर्तृहरि के शृंगारशतक से 'स्त्रीमुद्रां मकरध्वजस्य जयिनीं' यह श्लोक। तब क्या टीकाकार ने जिस-जिस सम्प्रदाय के ग्रन्थ से कोई श्लोक उद्धृत किया है, उसी-उसी सम्प्रदाय का उन्हें मान लिया जायेगा? यदि टीकाकार श्वेताम्बरग्रन्थ से गाथा उद्धृत करने के कारण यापनीय हो जाते हैं और उसके कारण मूलग्रन्थकार भी यापनीय हो जाते हैं, तो टीकाकार ने टीका में आचार्य कुन्दकुन्द १३१ और समन्तभद्र के ग्रन्थों से भी उद्धरण दिये हैं, इससे तो वे और मूलग्रन्थकार दिगम्बर ही सिद्ध होते हैं। मूलग्रन्थकार ने तो कुन्दकुन्द की अनेक गाथाएँ अपने ग्रन्थ में ही ग्रहण कर ली हैं। अतः प्रेमी जी का उपर्युक्त हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास है। इसलिए उसके आधार पर किया गया यह निर्णय भी भ्रान्तिपूर्ण है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। १८ आचारांगादि नाम दिगम्बर परम्परा में भी प्रसिद्ध यापनीयपक्ष प्रेमी जी-'अंगसुदे य बहुविधे' १३२ इस गाथा (४९९) की टीका में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के आचारांग, सूत्रकृतांग, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि भेदों का वर्णन किया गया है। ये नाम श्वेताम्बर-परम्परा के आगमों के हैं। अतः टीका में इनका उल्लेख होने से मूलग्रन्थ भी यापनीय सिद्ध होता है। (जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.७३)। १३०. फलटण एवं जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर के संस्करणों में उक्त गाथा क्रमांक १११७ पर है। १३१. देखिए, अध्याय १०/ प्रकरण १/शीर्षक ९.२। १३२. फलटण एवं जै.सं.सं.सं. शोलापुर के संस्करणों में उक्त गाथा का क्रमांक ५०१ है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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