SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ द्वि.सं./ पृ.७३)। यह एक श्वेताम्बरग्रन्थ का नाम है। मूलग्रन्थ की टीका में उसका उल्लेख हुआ है। अतः भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। डॉ० सागरमल जी ने भी इस हेतु का उल्लेख किया है। (जै.ध.या.स./ पृ.१२९)। दिगम्बरपक्ष यहाँ 'अनुयोगद्वार' शास्त्र का नाम नहीं है, अपितु जिन विभिन्न द्वारों से वस्तु का निरूपण किया जाता है उन सत् , संख्या, क्षेत्र, आदि निरूपणद्वारों को अनुयोगद्वार कहा गया है। इसीलिए टीकाकार ने कहा है कि विस्तार से कथन मन्दबुद्धियों के लिए दुरवगम होता है, अतः विविध अनुयोगद्वारों आदि का उपन्यास न करके संक्षेप में निरूपण किया गया है।१२७ उन्होंने नमस्कार का निरूपण करते समय स्पष्ट भी किया है कि निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन. अनुयोगद्वारों से नमस्कार का निरूपण किया जा रहा है-"निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानैरनुयोगद्वारैर्निरूप्यते।" (वि.टी./भ.आ./गा. आराधणापुरस्सर'७५२/पृ.४७१)। इस प्रकार भगवती-आराधना में या उसकी विजयोदयाटीका में श्वेताम्बरग्रन्थ 'अनुयोगद्वारसूत्र' का उल्लेख नहीं है, अतः उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत्य है। १७ आवश्यकसूत्र की गाथा मूलग्रन्थ में उद्धृत नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"भगवती-आराधना (गाथा ११६, पृ. २७७) में १२८ 'पंचवदाणि जदीणं१२९ आदि आवश्यकसूत्र की गाथा उद्धृत की है।" इसी प्रकार 'देसामसियसुत्तं' १२७. "वस्तु बहूपन्यस्तं दुरवगमं मन्दबुद्धीनामिति तदनुग्रहाय स्वल्पोपन्यासः।--- अनुयोगद्वारा दीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः प्रस्तुतस्यार्थसंक्षेपः।" विजयोदया टीका / भगवती-आराधना / गा.३/ पृ.१२। १२८. फलटण एवं जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर के संस्करणों में उक्त गाथा क्रमांक ११८ पर है। "तथावश्यकेऽप्युक्तम्पंचवदाणि जदीणं अणुव्वदाइं च देसविरदाणं। ण हु सम्मत्तेण विणा तो सम्मत्तं पढमदाए॥" वि.टी./भ.आ./ गा.११८ / पृ.१५९ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy