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________________ "अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ९९ की मान्यता प्रामाणिक सिद्ध नहीं होती। अतः भगवती-आराधना में श्वेताम्बरशास्त्रों के उल्लेख की मान्यता निरस्त हो जाती है, क्योंकि श्वेताम्बर शास्त्रों के नाम 'आचारजीत' एवं कल्प' अथवा 'कल्प्यगुण' नहीं हैं, अपितु 'आचारांग' और 'जीतकल्प' हैं। पूर्वोक्त . नाम दिगम्बरशास्त्रों के हैं, जो वर्तमान में 'मूलाचार,' 'छेदशास्त्र' आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त 'आचारक्रम' और 'कल्प्यगुण' तो शास्त्रों के नाम ही नहीं हैं, अपितु क्षपक के गुणों के सूचक शब्द हैं। भगवती-आराधना की चोद्दस-दस-णवपुव्वी गाथा (४३०) में कप्पववहारधारी का भी अर्थ कल्पव्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्तशास्त्र को जाननेवाला है। यह शास्त्र अर्थात् प्रायश्चित्त के नियम दिगम्बरसाहित्य में भी हैं। अतः उसे केवल श्वेताम्बरशास्त्र ही मान लेना यथार्थ निर्णय नहीं है। आचार, जीतकल्प आदि को श्वेताम्बर-शास्त्र-वाचक तब माना जा सकता था, जब भगवती-आराधना में स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति आदि श्वेताम्बरीय एवं यापनीय मान्यताओं का विरोध न होता। किन्तु इन मान्यताओं का विरोध पदपद पर है। इससे सिद्ध है कि वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है। और इसी से सिद्ध होता है कि उसमें उल्लिखित आचार, जीतकल्प आदि श्वेताम्बर-शास्त्रों के नाम नहीं हैं। ___ यतः उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि भगवती-आराधना में 'आचार', 'जीतकल्प' आदि श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख नहीं है, अतः उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु असत्य है कि उसमें इन श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख है। हेतु के असत्य होने से यह निर्णय भी असत्य है कि वह यापनीयग्रन्थ है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने तर्कों की संख्या बढ़ाने के लिए कुछ ऐसे तर्क भी रखे हैं, जिनका मूलग्रन्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है, विजयोदयाटीका से है। अतः वे मूलग्रन्थ के सम्प्रदाय के निर्णय में कार्यकारी नहीं हैं। वे भी भ्रान्तिजन्य हैं। अतः भ्रान्तिनिवारणार्थ आगे उनका निराकरण किया जा रहा है। १६ 'अनुयोगद्वार' शास्त्र का नाम नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"तीसरी गाथा की विजयोदयाटीका "अनुयोगद्वारादीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः" आदि में 'अनुयोगद्वारसूत्र' का उल्लेख किया है।" (जै.सा.इ./ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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