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________________ अ०१३/प्र०३ भगवती-आराधना / १०९ लिङ्गव्यवस्था के समान समझ लेने का निर्देश किया गया है, वैसे आर्यिकाओं की लिङ्गव्यवस्था को पुरुषों की लिङ्गव्यवस्था के समान समझ लेने का निर्देश नहीं किया गया है। अतः उनके लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय एकान्तस्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग ग्राह्य बतलाना अप्रामाणिक प्ररूपण है। ७. 'पुंसामिव योज्यम्' का अभिप्राय भगवती-आराधना की 'उस्सग्गियलिंगकदस्स' (गा. ७६), तथा 'आवसधे वा अप्पाउग्गे' (गा.७८) इन गाथाओं में कहा गया है कि यदि श्रावक महर्द्धिक (अतिवैभवसम्पन्न) है, लज्जालु है अथवा उसके परिवारजन मिथ्यादृष्टि (विधर्मी) हैं, तो उसे भक्तप्रत्याख्यान के समय अविविक्त (सार्वनिक) स्थान में पूर्वगृहीत सवस्त्र अपवाद-लिङ्ग दिया जाना चाहिए तथा विविक्त (एकान्त) स्थान में मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग दिया जा सकता है। अपराजितसूरि ने इन गाथाओं को दृष्टि में रखते हुए "इत्थीवि य जं लिंगं दिटुं" इस पूर्वोद्धृत ८०वीं गाथा की विजयोदया टीका में 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' यह उपर्युक्त वाक्य लिखा है अर्थात् श्राविकाओं की भक्तप्रत्याख्यानकालिक लिङ्गव्यवस्था पुरुषों (श्रावकों) के लिए उक्त गाथाओं में निर्धारित व्यवस्था के समान समझनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई श्राविका भी महर्द्धिक या लज्जालु है अथवा उसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हैं, तो उसे भक्तप्रत्याख्यान के समय सार्वजनिक स्थान में पूर्वगृहीत बहुवस्त्र-परिधानरूप अपवादलिङ्ग ग्राह्य है, किन्तु एकान्तस्थान में वह आर्यिकावत् एकसाड़ीमात्र-परिधानरूप अल्पपरिग्रहात्मक उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण कर सकती है। यह अर्थ अपराजित सूरि ने 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' इस वाक्य के अनन्तर निम्न शब्दों में स्पष्ट कर दिया है-"यदि महर्द्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टि-स्वजनाश्च तस्याः प्राक्तनं लिङ्गम्। विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम्। उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति अल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः ।" (वि.टी./भ. आ. / गा.८०)। इन वाक्यों में अपराजित सूरि ने स्पष्ट कर दिया है कि श्राविका को एकान्त स्थान में स्त्रियों के लिए निर्धारित अल्पपरिग्रहात्मक (एकसाड़ी-मात्रपरिधानरूप) उत्सर्गलिङ्ग ग्राह्य है। किन्तु पं० आशाधर जी ने 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' का अर्थ यह लगा लिया कि भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषिणी महर्द्धिक, लज्जालु या मिथ्यादृष्टि स्वजनवाली श्राविका एकान्त स्थान में इन्हीं गुणोंवाले श्रावक के समान वस्त्र भी त्याग देती है। (देखिए , उनकी पूर्वोद्धृत टीका) यह अर्थ भगवती-आराधना की उक्त गाथा और उसकी अपराजितसूरिकृत उपर्युक्त टीका के एकदम विपरीत है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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