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११० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
८. अमहर्द्धिकादि श्राविकाओं के लिए सर्वत्र उत्सर्गलिङ्ग
अपराजितसूरि ने कहा है कि जो श्राविका महर्द्धिक, लज्जालु या मिथ्यादृष्टि परिवार की है, उसे सार्वजनिक स्थान में पूर्वगृहीत अपवादलिङ्ग ग्रहण करने की अनुमति है, किन्तु एकान्त स्थान में उसे उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि जो श्राविका महर्द्धिक या मिथ्यादृष्टि - परिवार की नहीं है, उसकेलिए सार्वजनिक स्थान में भी उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने का आदेश है । अब यदि इस उत्सर्गलिङ्ग को मुनिवत् नाग्न्यरूप - उत्सर्गलिङ्ग माना जाए, तो स्त्री के सार्वजनिक स्थान में नग्न होने का प्रसंग आयेगा, जो स्त्री के शीलरक्षणार्थ आवश्यक लज्जारूप धर्म के और लोकमर्यादा के विरुद्ध है, जिनके पालन की आज्ञा आगम में दी गई है - "गयरोसवेरमायासलज्जमज्जादकिरियाओ ।" (मूलाचार / गा. १८८)।
आगम में स्त्री को सार्वजनिक स्थान में अपने अंगों को सदा आवृत रखने का आदेश है। आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमितगति ने कहा है कि स्त्री का गात्र स्वयं संवृत (ढँका हुआ) नहीं होता, इसलिए उसे वस्त्र से आवृत करने की आज्ञा दी गई है
अ०१३ / प्र० ३
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"ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरणं ॥ "
(प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्तिगत गाथा / ३ / २४ / १० पृ.२७६) । "न --- गात्रं च संवृतं तासां संवृतिर्विहिता ततः ॥ "
(योगसारप्राभृत ८/४७)।
तात्पर्य यह है कि शीलरक्षणार्थ स्त्रीशरीर के कुछ अंग पुरुषों को दृष्टिगोचर नहीं होने चाहिए, किन्तु वे यथाजात अवस्था में दृष्टिगोचर होते हैं, अतः उन्हें वस्त्र से आच्छादित कर अदृष्टिगोचर बनाना आवश्यक है। श्राविका के सार्वजनिक स्थान में नग्न हो जाने पर इस आगमवचन का पालन नहीं हो सकता, अतः अमहर्द्धिक, अलज्जालु (जिसे केवल एकसाड़ी धारण करने में लज्जा का अनुभव नहीं होता) अथवा सम्यग्दृष्टि - परिवार की श्राविका को सार्वजनिक स्थान में जिस उत्सर्गलिङ्ग के ग्रहण का उपदेश है, वह मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग नहीं हो सकता, आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग ही हो सकता है। इससे सिद्ध है कि अपराजित सूरि ने श्राविकाओं के लिए एकांत स्थान में भी आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग ही ग्राह्य बतलाया है । इस तथ्य से भी सिद्ध है कि पं० आशाधर जी की व्याख्या भगवती आराधना की उक्त गाथा के अभिप्राय के विरुद्ध है।
९. युक्तितः भी आगमविरुद्ध
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उपर्युक्त शब्दप्रमाणों से सिद्ध है कि भगवती - आराधना में भक्तप्रत्याख्यान के समय स्त्रियों के लिए एकांत या सार्वजनिक, किसी भी स्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग ग्रहण करने
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