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________________ ४२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०७ माना जाता था। प्रेमी जी ने अपराजित सूरि को यापनीय माना है, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ के चतुर्दश अध्याय में सिद्ध किया गया है कि वे शुद्ध दिगम्बर थे। अतः लगता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में कुछ आचार्य ऐसे थे, जो उक्त चार प्रकृतियों को पुण्यप्रकृति मानते थे। प्रेमी जी "सातवें अध्याय के तीसरे सूत्र के भाष्य में पाँच व्रतों की जो पाँच-पाँच भावनाएँ बतलायी हैं, उनमें से अचौर्यव्रत की भावनायें भगवती-आराधना के अनुसार हैं, सर्वार्थसिद्धि के अनुसार नहीं---। इससे भी मालूम होता है कि भाष्यकार और भगवती-आराधना के कर्ता दोनों एक ही सम्प्रदाय के हैं।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.५३४-५३५ )। निराकरण १.यदि अचौर्यव्रत की भावनाओं का वर्णन भगवती-आराधना के अनुसार१७२ करने से भाष्यकार उमास्वाति यापनीय सिद्ध होते हैं, तो शेष चार व्रतों की भावनाओं का निरूपण सर्वार्थसिद्धि के अनुसार करने से दिगम्बर सिद्ध होते हैं। किन्तु वे यापनीय और दिगम्बर, दोनों एक साथ नहीं हो सकते। अतः प्रेमी जी के द्वारा प्रस्तुत हेतु हेत्वाभास है। अर्थात् उससे यह सिद्ध नहीं होता कि भाष्यकार यापनीय हैं। २. भगवती-आराधना नामक त्रयोदश अध्याय में अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि उसके कर्ता दिगम्बर हैं, यापनीय नहीं, अतः उनके द्वारा वर्णित अचौर्यव्रत की भावनाओं का भाष्य में अनुकरण करने से न तो यह सिद्ध होता है कि भाष्यकार यापनीय हैं, न यह कि तत्त्वार्थसूत्रकार यापनीय हैं। पूर्व प्रस्तुत प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि तत्त्वार्थसूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, अतः प्रेमी जी का उन्हें अभिन्न मानना भी अप्रामाणिक है। प्रेमी जी "नवें अध्याय के सातवें सूत्र में अनित्य, अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम दिए हैं और भाष्य में कहा है-'एता द्वादशानुप्रेक्षाः।' ये बारह अनुप्रेक्षाएँ हैं। १७२. क- अणणुण्णादग्गहणं असंगबुद्धी अणुण्णवित्ता वि। एदावंतियउग्गहजायणमध उग्गहाणुस्स॥ १२०२॥ वज्जणमणण्णुणादगिहप्पवेसस्स गोयरादीसु। उग्गहजायणमणुवीचिए तहा भावणा तइए॥ १२०३॥ भगवती-आराधना। ख-"अस्तेयस्यानुवीच्यवग्रहयाचनमभीक्ष्णावग्रहयाचनमेतावदित्यवग्रहावधारणं समानधार्मि केभ्योऽवग्रहयाचनमनुज्ञापितपानभोजनमिति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ७/३/ पृ.३२०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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