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________________ अ०१६ /प्र०७ तत्त्वार्थसूत्र / ४२३ प्रेमी जी "आठवें अध्याय का अन्तिम सूत्र है-'सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्।" (त.सू./ श्वे./८/२६)। इसमें पुरुषवेद, हास्य, रति और सम्यक्त्वमोहनीय, इन चार प्रकृतियों को पुण्यरूप बतलाया है। परन्तु श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में इन्हें पुण्यप्रकृति नहीं माना है। इसलिए सिद्धसेनगणी को इस सूत्र की टीका करते हुए लिखना पड़ा कि "कर्मप्रकृति ग्रन्थ का अनुसरण करने वाले तो ४२ प्रकृतियों को ही पुण्यरूप मानते हैं। उनमें सम्यक्त्व, हास्य, रति, पुरुषवेद नहीं हैं। सम्प्रदाय का विच्छेद हो जाने से मैं नहीं जानता कि इसमें भाष्यकार का क्या अभिप्राय है और कर्मप्रकृति-ग्रन्थ-प्रणेताओं का क्या? चौदहपूर्वधारी ही इसकी ठीक-ठीक व्याख्या कर सकते हैं।१७० वास्तव में उक्त चार प्रकृतियों को पुण्यरूप यापनीयसम्प्रदाय ही मानता है और यह न जानने के कारण ही सिद्धसेनगणी उलझन में पड़कर कुछ निर्णय नहीं कर सके हैं। अपराजित यापनीय थे। उन्होंने भी आराधना की विजयोदयाटीका में उक्त चार प्रकृतियों को पुण्यरूप माना है। यथासद्वेद्यं सम्यक्त्वं रतिहास्यपुंवेदाः शुभे नामगोत्रे शुभं चायुः पुण्यं, एतेभ्योऽन्यानि पापानि।"१७१ (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.५३४)। निराकरण __ तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ एवं उसके भाष्य दोनों में उक्त प्रकृतियों को पुण्यप्रकृति बतलाया गया है, जब कि दिगम्बरमान्य पाठ में सद्वेद्य को छोड़कर शेष को पापप्रकृति ही कहा गया है। तथापि उनका पुण्यप्रकृतित्व दिगम्बराचार्यों को भी मान्य है, यह 'अपराजितसूरि : दिगम्बराचार्य' नामक चतुर्दश अध्याय के द्वितीय प्रकरण (शीर्षक ११) में प्रतिपादित किया जा चुका है। अतः उक्त आधार पर तत्त्वार्थसूत्रकार को यापनीय मानना युक्तिसंगत नहीं है। इसके अतिरिक्त अपराजित सूरि ने सम्यक्त्वमोहनीय आदि को पुण्यप्रकृति मानते हुए भी भगवती-आराधना की टीका में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का जोरदार खण्डन किया है। इससे स्पष्ट है कि उनकी विचारधारा यापनीय-मतानुगामिनी नहीं थी। इस विचारधारा से वे पक्के दिगम्बर सिद्ध होते हैं। इसका भी कोई प्रमाण नहीं है कि उक्त प्रकृतियों को यापनीयसम्प्रदाय में पुण्यप्रकृति १७०."कर्मप्रकृतिग्रन्थानुसारिणस्तु द्वाचत्वारिंशत्प्रकृती: पुण्याः कथयन्ति।---आसां च मध्ये सम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदा न सन्त्येवेति। कोऽभिप्रायो भाष्यकृतः को वा कर्मप्रकृतिग्रन्थप्रणायिनामिति सम्प्रदायविच्छेदान्मया तावन्न व्यज्ञायीति। चतुर्दशपूर्वधरादयस्तु संविदते यथावदिति निर्दोषं व्याख्यातम्।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ८/२६/पृ. १७८ । १७१. विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना /गा. 'अणुकंपासुद्धवओगो' १८२८/ पृ. ८१४। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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