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________________ ४२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० ७ १६वीं शती ई० में लिखा गया है। कोई शिलालेख - कवि यापनीयसम्प्रदाय का हो और वह शाकटायन के द्वारा रचे गये व्याकारण पर 'न्यास' लिखनेवाले दिगम्बराचार्य को तो नमस्कार करे और स्वयं शाकटायन को न करे, यह त्रिकाल में संभव नहीं है। अतः सिद्ध है कि शिलालेख का कवि एवं उसके मार्गदर्शक - प्रेरक मुनि एवं राजा यापनीयसम्प्रदाय के नहीं थे, अपितु दिगम्बरजैन थे । उनके द्वारा तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वा की वन्दना की गयी है, यह इस बात का प्रमाण है कि वे उमास्वाति को दिगम्बराचार्य ही मानते थे। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि आचार्यविशेष के लिए श्रुतकेवलिदेशीय विशेषण का प्रयोग दिगम्बरजैन - परम्परा में भी किया गया है। अतः किसी जैनाचार्य के साथ इस विशेषण का प्रयोग उसके यापनीय होने का प्रमाण नहीं है। श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि ने सिद्धसेन दिवाकर को श्रुतकेवली उपाधि से अभिहित किया है। इससे प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अश्रुतकेवलियों के लिए श्रुतकेवली उपाधि का प्रयोग यापनीयसंघ का वैशिष्ट्य है, अतः सिद्धेसन दिवाकर यापनीय थे । ( Siddhasena's Nyayavatar And Other Works : A.N. Upadhye / Introduction / pp. XIII to ZVIII) | इसका खण्डन करते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं- " श्रुतकेवली विशेषण न केवल यापनीयपरम्परा के आचार्यों का, अपितु श्वेताम्बरपरम्परा के प्राचीन आचार्यों का भी विशेषण रहा है। यदि 'श्रुतकेवली' विशेषण श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही परम्पराओं में पाया जाता है, तो फिर यह निर्णय कर लेना कि सिद्धसेन यापनीय हैं, उचित नहीं होगा ।" (जै.ध.या.स. / पृ. २३२) । मेरा भी यही तर्क है। जब दिगम्बरजैनाचार्यों का वर्णन करनेवाले उपर्युक्त शिलालेख में दिगम्बर जैनाचार्य उमास्वाति के साथ ' श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण का प्रयोग किया गया है, तब उसके प्रयोग को केवल यापनीयसंघ के आचार्य का लक्षण मानना तर्कसंगत नहीं है। अतः सिद्ध है कि 'श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण का प्रयोग होने पर भी तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति दिगम्बरजैन आचार्य ही हैं। ४. — श्रुतकेवलिदेशीय' उपाधि अनुचित भी नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ ' श्रुतकेवली' नहीं है, अपितु 'श्रुतकेवलि-सदृश' है, जो एक बहुश्रुत और अपनी 'तत्त्वार्थसूत्र' जैसी गागर में सागरवत् ज्ञानगम्भीर प्रामाणिक कृति से महान् लोकोपकार करनेवाले आचार्य के प्रति अनुरागातिरेक से भरे हुए भक्त की लेखनी से निकलना सामान्य बात है । यापनीय-आचार्य शाकटायन ने अपने लिए इस उपाधि का प्रयोग किया ही है और श्वेताम्बराचार्य हरभिद्रसूरि ने तो सिद्धसेन दिवाकर को 'श्रुतकेवली' ही कह दिया है। लगता है इन्हीं प्रयोगों से प्रभावित होकर उक्त शिलालेख के दिगम्बरजैन कवि ने अपने सम्प्रदाय के बहुश्रुत तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति को भी 'श्रुतकेवलिदेशीय' उपाधि से विभूषित कर दिया है। 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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