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________________ अ०१६/प्र०७ तत्त्वार्थसूत्र / ४२५ परन्तु डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने मुझे बतलाया है कि उपलब्ध आगमों में कहीं भी पूरी बारह अनुप्रेक्षाएँ नहीं मिलतीं। कहीं चार हैं, कहीं दो हैं, कहीं एक, जब कि भगवती-आराधना में (गाथा १७१५-१८७१) इन्हीं बारह भावनाओं का खूब विस्तार के साथ वर्णन है। इससे भी उमास्वाति और भगवती-आराधना के कर्ता एक ही परम्परा के मालूम होते हैं। कम से कम उमास्वाति उस परम्परा के नहीं जान पड़ते, जो इस समय उपलब्ध आगमों की अनुयायिनी है। मूलाचार में भी आठवें परिच्छेद में द्वादशानुप्रेक्षाओं का विस्तृत वर्णन है और वह भी आराधना की परम्परा का ग्रन्थ है।" (जै.सा.इ./ द्वि.सं./ पृ. ५३५-५३६)। निराकरण पहले सिद्ध किया जा चुका है कि भगवती-आराधना यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बर-परम्परा का है। इसलिए उसमें और तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित द्वादशानुप्रेक्षाओं में जो साम्य है, उससे तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध होता है, यापनीयपरम्परा का नहीं। मूलाचार भी दिगम्बराचार्यकृत ही है, यह पूर्व में प्रमाणित किया जा चुका है। प्रेमी जी "तीसरे अध्याय के 'आर्या म्लेच्छाश्च' सूत्र के भाष्य में अन्तरद्वीपों के नाम वहाँ के मनुष्यों के नाम से पड़े हुए बतलाये हैं, जैसे एकोरुकों का (एक टाँगवालों का) एकोरुकद्वीप आदि। परन्तु इसके विरुद्ध भाष्य-वृत्तिकर्ता सिद्धसेन कहते हैं कि उक्त द्वीपों के नाम से वहाँ के मनुष्यों के नाम पड़े हैं, जैसे एकोरुकद्वीप के रहने वाले एकोरुक मनुष्य। वास्तव में वे मनुष्य सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगों से पूर्ण सुन्दर मनोहर हैं। अर्थात् इस विषय में भाष्य और वृत्तिकार की मान्यता में भेद है। परन्तु यापनीयों की विजयोदया टीका में भाष्य के ही मत का प्रतिपादन किया गया है और यह भी भाष्यकार के यापनीय होने का प्रमाण है।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.५३६)। निराकरण विजयोदया टीका के कर्ता अपराजित सूरि यापनीय नहीं, दिगम्बर हैं, यह पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है। उनके मत में और भाष्यकार के मत में उपर्युक्त प्रकार से समानता है, इससे यही सिद्ध होता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में कुछ आचार्य ऐसे थे, जिनका उक्त द्वीपों के नामकरण के विषय में एक जैसा मत था। इसके अतिरिक्त पूर्व में सप्रमाण दर्शाया गया है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना द्वितीय शताब्दी ई० में हुई थी, जब कि यापनीयसंघ का उदय ईसा की पाँचवीं शताब्दी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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