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________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७८३ ___ इस प्रकार यह ग्रन्थ यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से भरा पड़ा है, यह त्रिकाल में यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता। डॉ० सागरमल जी ने इस ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र को अपनी कल्पना के आधार पर यापनीयसंघ के कण्डूर्गण से सम्बद्ध बतलाया है, किन्तु प्रभाचन्द्र ने जितने भी संघ और गणों के आचार्यों की निषीधिका को नमस्करणीय कहा है, वे सब दिगम्बरपरम्परा के हैं। यथा "--- कुलकराणां नन्दि-देव-सेन-सिंहसङ्घ-देशिगण-बलात्कारगण-काणूरगण-सूरस्थगणप्रभृति-सङ्घगण-भेदकराणां च याः काश्चिन्निषीधकास्ता नमस्यामि।" (वही / पृ.२८)। ... इन संघों के दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होने के प्रमाण इन्द्रिनन्दिकृत 'श्रुतावतार' (कारिका ९३-१००) में उपलब्ध हैं। काणूगण भी मूलसंघ अर्थात् दिगम्बरजैनसंघ का ही गण था, यापनीयसंघ में कण्डूरगण था। ये, दोनों गण भिन्न-भिन्न थे। इसकी सप्रमाण सिद्धि सप्तम अध्याय के तृतीय प्रकरण में की जा चुकी है। इस प्रमाण से आचार्य प्रभाचन्द्र का दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होना निर्विवाद है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी टीका में जो एकमात्र निर्ग्रन्थलिंग के मोक्षमार्ग होने का प्रतिपादन किया है तथा मुनि के लिए आचेलक्यादि २८ मूलगुणों को अनिवार्य बतलाया है, उससे भी उनके दिगम्बराचार्य होने में कोई सन्देह नहीं रहता। प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में उद्धृत जिन गाथाओं की विषयवस्तु श्वेताम्बर-आगम ज्ञातृधर्मकथांग तथा सूत्रकृतांग की गाथाओं में वर्णित विषयवस्तु से साम्य रखती है, उन्हें यदि इन आगमों से ही गृहीत माना जाय, तो भी यह ग्रन्थ यापनीय-सम्प्रदाय का सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परशासनमुक्ति आदि उन सिद्धान्तों का निषेध है, जो यापनीयमत के मौलिक सिद्धान्त है। जिस मनुष्य का शरीर ही पुरुष का न हो, वह यदि पुरुष के वस्त्र पहन ले, तो पुरुष नहीं कहला सकता, वैसे ही जिस ग्रन्थ में सिद्धान्त ही यापनीयमत के न हों, बल्कि जो यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से भरा हो, उसमें यदि श्वेताम्बरागमसदृश गाथाएँ या विषयवस्तु उपलब्ध हो, तो वह यापनीयग्रन्थ नहीं कहला सकता। इसके बावजूद उसे यापनीयग्रन्थ कहा जाय, तो इससे पाठकों को यापनीयमत के विषय में उलटी जानकारी मिलेगी। पाठक समझेंगे कि यापनीयमत वह है, जो अपवादरूप से भी मुनि के लिए सचेललिंग का निषेध करता है तथा स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति एवं अन्यलिंगिमुक्ति को अमान्य करता है, जब कि वास्तविकता यह है कि यापनीयमत Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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