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________________ ७८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२४ "मूलगुणेसु।" इसकी टीका में प्रभाचन्द्र लिखते हैं-"पञ्च व्रतानि, पञ्च समितयः, पञ्चेन्द्रियनिरोधाः षडावश्यकाः (कानि),आचेलक्यं,लोचोऽदन्तधावन-मस्नानं, क्षितिशयनं, स्थितिभोजमेकभुक्तं चेत्यष्टाविंशतिर्मूलगुणाः, तेषु।" (वही/ पृ.१५१)।। इन २८ मूलगुणों में आचेलक्य न तो श्वेताम्बरपरम्परा में मुनियों का मूल (आधारभूत, अनिवार्य) गुण माना गया है, न यापनीयपरम्परा में। श्वेताम्बरमत में सर्वथा सचेललिंग ही मुनिलिंग माना गया है, और यापनीयमत में उसे अपवादरूप से मान्यता दी गयी है। अतः सिद्ध है कि 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। ५. इसमें अन्य मतों और अन्य लिंगों की प्रशंसा को अर्थात् उन्हें मोक्षमार्ग बतलाने को दर्शनाचार का परित्याग कहा गया है यथा "दंसणायारो अट्टविहो।--- परिहाविदो संकाए, कंखाए--- अण्णदिट्ठिपसंसणाए, परपासंडपसंसणाए---।" (वही / पृ.१६०-१६१)। आचार्य प्रभाचन्द्र ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है-"दर्शनाचारोऽष्टविधः परिहापितः परित्यक्तः। कयेत्याह-शङ्कया, कांक्षया--- अन्येषां मिथ्यादृष्टीनां दृष्टयो मतानि, तेषां प्रशंसनया, परेषां मिथ्यादृष्टीनां पाषण्डानि लिङ्गनि, तेषां प्रशंसनया---।" (वही । पृ. १६०-१६१)। अनुवाद-"आठ प्रकार का दर्शनाचार छूट जाता है। किससे? शंका, कांक्षा--अन्यमत की प्रशंसा, अन्य लिंग (मुनिवेश) की प्रशंसा (अर्थात् उन्हें मोक्षमार्ग बतलाने) आदि से। (अतः उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए)।" यापनीयमत परशासन अर्थात् अन्यलिंग से मुक्ति मानता है, उसका यहाँ निषेध किया गया है, इससे भी सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ यापनीयसम्प्रदाय का नहीं, अपितु दिगम्बर-सम्प्रदाय का है। ६. इसमें 'णवण्हं णो कसायाणं' (पृ.१२) इस वचन द्वारा नौ नोकषायों का अस्तित्व बतलाया गया है, जिनमें स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद ये अलग-अलग तीन वेद स्वीकार किये गये हैं। यह वचन यापनीयमत के विरुद्ध है। यापनीयमत केवल एक वेदसामान्य स्वीकार करता है। ७. णिग्गंथं सेढिमग्गं (पृ.६६) वचन द्वारा निर्ग्रन्थलिंग को गुणस्थानों की उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी पर आरोहण का उपाय कहा गया है, जिससे ज्ञाता होता है कि 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' को गुणस्थानसिद्धान्त मान्य है, यह यापनीयों को मान्य नहीं है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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