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________________ ७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ दश स्थितिकल्पों को अमान्य नहीं करते, उन्हें मान्य करके ही अपने पक्ष का समर्थन करते हैं।"९५ किन्तु रचनाकाल की पूर्वापरता के आधार पर विचार किया जाय, तो 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा जिन ग्रन्थों में प्राप्त होती है, उनमें दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना का रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई० है तथा श्वेताम्बरग्रन्थ कल्पनियुक्ति (भद्रबाहु द्वितीय) का छठी शती ई०९६ और जीतकल्पभाष्य (जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण)९७, बृहत्कल्पलघुभाष्य (संघदासगणि-क्षमाश्रमण)९८ एवं निशीथभाष्य (विसाहगणि-महत्तर),१९ इन सबका ७वीं शती ई० है। इससे सिद्ध होता है कि 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा मूलतः भगवती-आराधना की है। वहाँ से उपर्युक्त श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में ग्रहण की गई है। पं० सुखलाल जी संघवी के वचन पूर्व में उद्धृत किये गये हैं, जिनमें उन्होंने कहा है कि यह गाथा कल्पसूत्र और आचारांग में प्राप्त होती है, पर प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक ने इन दोनों ग्रंथों को देखा है, दोनों में यह उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बरसाहित्य में यह गाथा सर्वप्रथम छठी शती ई० के नियुक्तिकार भद्रबाहु-द्वितीयकृत कल्पनियुक्ति (कल्पसूत्रनियुक्ति) में उपलब्ध होती है। श्वेताम्बर विद्वान् श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री लिखते हैं-"कल्पसूत्र की सबसे प्राचीन व्याख्या नियुक्ति और चूर्णि है। नियुक्ति गाथारूप है और चूर्णि गद्यरूप। दोनों की भाषा प्राकृत है। नियुक्ति के रचयिता द्वितीय भद्रबाहु हैं।" (कल्पसूत्र-प्रस्तावना/ पृ.१६) । उक्त मुनि जी का कथन है कि कल्पसूत्र की सभी व्याख्याओं में 'आचेलक्कुदेसिय' गाथा कल्पनियुक्ति से ही उद्धृत की गयी है। (कल्पसूत्र / परिशिष्ट १/टिप्पणी क्र. ३)। मुनि कल्याणविजय जी ने भी इसे कल्पनियुक्ति की ही गाथा बतलाया है। (श्रमण भगवान् महावीर/ पृ.३३६)। क्षपक के लिए मुनियों द्वारा आहार-आनयन अविरुद्ध संस्तरारूढ़ क्षपक के लिए चार मुनियों द्वारा आहार-पान लाये जाने का कथन भी दिगम्बरत्व-विरोधी नहीं है, क्योंकि 'चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति' गाथा ६६१ ९५. भगवती-आराधना (जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९७८ ई०)/ प्रस्तावना/पृ.३४-३५ । ९६. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैनागम साहित्य मनन और मीमांसा / पृ.४३८, ५४७ । ९७. वही/पृ.४६१, ४६९ । ९८. वही / पृ.४७३-७४। ९९. वही/पृ. ४७३, ४८२ तथा दलसुख मालवणिया-'निशीथ : एक अध्ययन'/पृ. ४४-४५/ निशीथसूत्र भाग १, पीठिका, सम्पादक-अमर मुनि जी/ भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली । द्वितीय संस्करण /१९८२ ई०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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