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________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ७७ करने के लिए दीवान अमरचन्द्र जी को पत्र लिखा था। दीवान जी ने उत्तर दिया था कि "इसमें वैयावृत्ति करनेवाला मुनि आहार आदि से मुनि का उपकार करे, परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया है कि आहार स्वयं हाथ से बनाकर दे। मुनि की ऐसी चर्या आचारांग में नहीं बतलाई है।" (जै.सा.इ./ द्वि.सं./पृ.७०-७१)। दिगम्बरपक्ष प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी और स्वयं पं० नाथूराम जी प्रेमी ने स्वीकार किया है कि 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा उन गाथाओं में से है, जिनका अस्तित्व संघभेद से पूर्व था और संघविभाजन के बाद श्रुतिपरम्परा से दोनों सम्प्रदायों में चली आईं। यह पूर्व में सोद्धरण प्रतिपादित किया जा चुका है। (देखिये, प्रकरण २/शीर्षक ५)। इसलिए इसे श्वेताम्बर-आगमों से गृहीत मानकर शिवार्य को यापनीय सिद्ध करना न्यायोचित नहीं है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में इस गाथा का उल्लेख श्वेताम्बरसिद्धान्त के रूप में किया है, वह ठीक ही है। क्योंकि यह गाथा उनके ग्रन्थों में भी मिलती है। प्रभाचन्द्र ने इसे प्रमाणरूप में उद्धृत कर यह सिद्ध किया है कि मुनि के लिए अचेललिंग का उपदेश श्वेताम्बर-आगमों में भी मिलता है। अतः मोक्ष का यही परम्परागत मौलिक मार्ग है। सचेलमार्ग कल्पित है, भगवान् के द्वारा उपदिष्ट नहीं है। अतः भगवान् के उपदेश के अनुसार स्त्रियों के लिए अचेललिंग संभव न होने से स्त्रीमुक्ति सम्भव नहीं है। ___ माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी के कथन से भी इस बात का समर्थन होता है। वे लिखते हैं-"प्रेमी जी का यह लिखना यथार्थ है कि दसकल्पोंवाली गाथा श्वेताम्बरआगमसाहित्य में मिलती है। इसी से आचार्य प्रभाचन्द्र ने उसका उपयोग अपने पक्ष की सिद्धि में किया है कि आप लोग आचेलक्य नहीं मानते हैं, ऐसी बात नहीं है, आप भी मानते हैं और उन्होंने प्रमाणरूप से वही गाथा उद्धृत की है। किन्तु इससे वह गाथा तो श्वेताम्बरीय सिद्ध नहीं होती। मूलाचार में भी (१०/१७) यह गाथा आई है। आशाधर के अनगारधर्मामृत में (९/८०-८१) भी इसका संस्कृत रूप मिलता है। दस कल्प तो दिगम्बरपरम्परा के प्रतिकूल नहीं हैं, किन्तु अनुकूल ही हैं। इसका प्रबल प्रमाण प्रथमकल्प आचेलक्य ही है, जिसका अर्थ श्वेताम्बर-टीकाकारों ने अल्पचेल या अल्पमूल्यचेल आदि किया है। आचार्य प्रभाचन्द्र उक्त गाथांश को उद्धृत करके लिखते हैं- "पुरुषं प्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये तदुपदेशात्।" पुरुष के प्रति जो दश प्रकार के स्थितिकल्प कहे हैं, उनमें आचेलक्य का उपदेश है। अतः वह Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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