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________________ ७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अविचय-मंस-सोणियं । तवस्सियं किसं दन्तं पत्तनिव्वाणं तं वयं बूम माहणं ॥ सुव्वयं उत्तराध्ययन / २५ / २२ उत्तराध्ययन की ऐसी अनेक गाथाएँ धम्मपद आदि की गाथाओं से साम्य रखती हैं । सूत्रकृतांग तथा इसिभासिय में भी धम्मपद की गाथाओं से मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ हैं । इस साम्य से यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तराध्ययन वैदिक या बौद्ध सम्प्रदाय का ग्रन्थ है । इसी प्रकार श्वेताम्बरग्रन्थों में भगवती - आराधना से गाथाएँ ग्रहण किये जाने के कारण यह सिद्ध नहीं होता कि वे दिगम्बरग्रन्थ हैं। तथा भगवतीआराधना में कुन्दकुन्द की गाथाओं का उपलब्ध होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह कुन्दकुन्दकृत है । 44 अ० १३ / प्र० २ यापनीयपक्ष प्रेमी जी – “दश स्थितिकल्पों के नामवाली - गाथा, जिसकी टीका पर अपराजित सूरि को यापनीय सिद्ध किया गया है, जीतकल्पभाष्य की १९७२ नं. की गाथा है। श्वेताम्बर - सम्प्रदाय की अन्य टीकाओं और नियुक्तियों में भी यह मिलती है और प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड के स्त्रीमुक्तिविचार ( नया एडीशन, पृ. १३१ ) प्रकरण में इसका उल्लेख श्वेताम्बर सिद्धान्त के रूप में ही किया है- " नाचेलक्यं नेष्यते (अपि ईष्यतेव) 'आचेलक्कुद्देसिय- सेज्जाहर-रायपिंड - कियिकम्मे' इत्यादेः पुरुषं प्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये तदुपदेशात् । " ८ 'आचेलक्कुद्देसिय' आराधना की मौलिक गाथा 'आराधना की ६६२ और ६६३ नम्बर की गाथाएँ भी दिगम्बरसम्प्रदाय के साथ मेल नहीं खाती हैं। उनका अभिप्राय यह है कि लब्धियुक्त और मायाचाररहित चार मुनि ग्लानिरहित होकर क्षपक के योग्य निर्दोष भोजन और पानक (पेय) लावें । ९४ इस पर पं० सदासुख जी ने आपत्ति की है और लिखा है कि "यह भोजन लाने की बात प्रमाणरूप नाहीं ।" इसी तरह 'सेज्जागासणिसेज्जा' आदि गाथा पर (जो मूलाचार में भी ३९१ नं. पर है) कविवर वृन्दावनदास जी को शंका हुई थी और उसका समाधान Jain Education International ९४. चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति अगिलाए पाओग्गं । छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ॥ ६६१ ॥ चत्तारि जणा पाणयमुवकप्पंति अगिलाए पाओग्गं । छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ॥ ६६२ ॥ भगवती - आराधना । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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