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________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ७५ है। इससे सिद्ध होता है कि ये गाथाएँ मूलतः दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना की हैं, जो इनकी सैद्धान्तिक सूक्ष्मता पर ध्यान दिये बिना 'भक्तपरिज्ञा' के कर्ता द्वारा अपने ग्रन्थ में संगृहीत कर ली गई हैं। ७.६. परसाहित्यांश-ग्रहण से कर्तृत्व-परिवर्तन नहीं - यदि एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के ग्रन्थों से कुछ अपने अनुकूल लेता भी है, तो इससे उस ग्रन्थ का कर्तृत्व नहीं बदल जाता। उत्तराध्ययनसूत्र में महाभारत और बौद्ध ग्रन्थों से अनेक श्लोक और गाथाएँ ली गई हैं। श्री मधुकर मुनि ने ज्ञाताधर्मकथांग की प्रस्तावना (पृ.३०) में निम्नलिखित उदाहरण दिये हैंमिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किञ्चन। महाभारत/१२,१७,१८-१९ । मिथिलायां दह्यमानायां न मे किञ्चि अदह्यत। जातक/६/५४-५५। महिलाए डज्झमाणीए ण मे डज्झइ किंचणं। उत्तराध्ययन/९/१४। मासे मासे कुसग्गेन बालो भुजेय्य भोजनं। न सो संखतधम्मानं कलं अग्घति सोळसिं॥ धम्मपद/७०। मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खाय धम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं॥ उत्तराध्ययन/९/४४। यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने। एकं च जेय्यमत्तानं स वे संगामजुत्तमो॥ धम्मपद/१०३। जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुजए जिणे। एगं जिणेज अप्पाणं एस से परमो जओ॥ उत्तराध्ययन/९/३४। पंसु कूलधरं जन्तुं किसं धमनिसन्थतं। एकं वनस्मिं झायन्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥ धम्मपद/१३ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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