________________
७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०२ ग- संगो महाभयं जं विहेडिदो सावगेण संतेण। पुत्तेण चेव अत्थे हिदम्मि णिहिदेल्लए साहुं॥
भगवती-आराधना / ११२४। संगो महाभयं जं विहिडिओ सावएण संतेणं। पुत्तेण हिए अत्थम्मि मणिवइ कुंचिएण जहा॥
भक्तपरिज्ञा / १३३। घ- सव्वगंथविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य। जं पावइ पीयिसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहइ॥
भगवती-आराधना/११७६। सव्वगंथविमुक्को सीईभूओ पसंतचित्तो य। जं पावइ मुत्तिसुहं न चक्कवट्टी वि तं लहइ॥
भक्तपरिज्ञा / ११३४। भगवती-आराधना की इन गाथाओं में आभ्यन्तर और बाह्य, दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़ने का उपदेश दिया गया है और क्षेत्र, वास्तु , धन, धान्य, कुप्य (वस्त्र)९२ वर्तन, द्विपद, चतुष्पद, यान और शयन-आसन ये दस प्रकार की वस्तुएँ बाह्य परिग्रह बतलायी गयी हैं तथा कहा गया है कि मनुष्य इन्हीं के लिये जीवों को मारता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन करता है और अपरिमित इच्छा करता है। यह बाह्य परिग्रह महाभय का कारण है। जो इस समस्त परिग्रह से मुक्त हो जाता है, वह इतना सुखी होता है, जितना चक्रवर्ती भी नहीं हो सकता।
ये गाथाएँ निरपवाद आचेलक्य९३ का प्रतिपादन करती हैं, जो दशवैकालिक सूत्र के इस कथन के विरुद्ध है कि "साधु लज्जा और संयम के लिए जो वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौंच्छन रखता है, उसे भगवान् ने परिग्रह नहीं कहा, अपितु उसमें मूर्छा करने को परिग्रह कहा है।" भगवती-आराधना की उपर्युक्त गाथाओं में वस्त्रपात्रादि सम्पूर्ण परिग्रह के त्याग को अपरिग्रह कहा गया है, जिससे सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का निषेध होता है। और यह बात डॉ० सागरमल जी ने स्वयं स्वीकार की है कि जहाँ मूर्छादि भावपरिग्रह के साथ वस्त्रपात्रादि द्रव्यपरिग्रह का भी पूर्ण त्याग आवश्यक मान लिया जाय, वहाँ स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध स्वाभाविक ही है। (जै.ध. या.स./ पृ.४१२)। अतः उक्त गाथाओं में प्रतिपादित सिद्धान्त श्वेताम्बरीय मान्यताओं के विरुद्ध ९२. "कुप्यं वस्त्रम्।" विजयोदयाटीका / भ. आ./ गा. 'बाहिरसंगा' १११३ / पृ.५७१ । ९३. "आचेलक्कुद्देसिय-चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते।"
विजयोदयाटीका / भ.आ./ गा.४२३ / पृ.३२० ।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org