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________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ७३ सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि। सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि॥ सुत्तपाहुड/३। पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासइ सो गओ वि संसारे। सच्चेयणपच्चक्खं णासदि तं सो अदिस्समाणो वि॥ सुत्तपाहुड/४। सूई जहा ससुत्ता न न स्सइ कयवरम्मि पडिया वि। जीवो वि तह ससुत्तो न नस्सइ गओ वि संसारे॥ __ भक्तपरिज्ञा /८६। दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं। समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मझं॥ पंचमहागुरुभक्ति-कुन्दकुन्द। दुक्खक्खय कम्मक्खय समाहिमरणं च बोहिलाभो य। एयं पत्थेयव्वं न पत्थणिजं तओ अन्नं॥ भक्तपरिज्ञा / १३९। निम्नलिखित गाथाएँ भगवती-आराधना और भक्तपरिज्ञा दोनों में उपलब्ध होती हैं। इनकी विषयवस्तु पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि ये श्वेताम्बर-मान्यताओं के सर्वथा विरुद्ध हैं, क्योंकि इनमें आभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकार के परिग्रह के त्याग की बात कही गई है क- अब्भंतरबाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवजेहि। कदकारिदाणुमोदेहिं कायमणवयणजोगेहिं॥ भगवती-आराधना / ११११ । अब्भिंतर-बाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवजेहि। कयकारियऽणुमईहिं कायमणोवायजोगेहिं॥ भक्तपरिज्ञा /१३१ । ख- संगणिमित्तं मारेइ अलियवयणं च भणइ तेणिक्कं। भजदि अपरिमिदमिच्छं सेवदि मेहुणमवि य जीवो॥ __ भगवती-आराधना /१११९ । संगनिमित्तं मारेइ भणइ अलियं करेइ चोरिक्कं। सेवइ मेहुण मुच्छं अप्परिमाणं कुणइ जीवो॥ भक्तपरिज्ञा/१३२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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