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________________ ७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ का इन श्वेताम्बरग्रन्थों से भगवती-आराधना में आना संभव नहीं है, अपितु भगवतीआराधना से उनमें जाना संभव है। यापनीयपक्षधर विद्वान् ने लिखा है-"श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते।"९० मेरी दृष्टि से इसका कारण सम्भवतः यही है कि इन ग्रंथों की अधिकांश गाथाएँ दिगम्बरग्रंथों से ली गई हैं, जिससे वे उन्हें प्रमाणरूप नहीं मानते। ७.५. दिगम्बरीय-गाथाओं के श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँचने के प्रमाण यह तो एकदम स्पष्ट है कि आतुरप्रत्याख्यान और भक्तपरिज्ञा १ में निम्नलिखित गाथाएँ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से ली गई हैं, क्योंकि कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए हैं और ये गाथाएँ उनके ग्रन्थों के अतिरिक्त किसी प्राचीन श्वेताम्बर-आगम में नहीं मिलती ममत्तिं परिवजामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे॥ नि.सा./९९, भा.पा./५७, आतुरप्रत्या./२३ । आदा खु मज्झ णाणे आदा मे देसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे॥ स.सा./२७७, नि.सा./१००, भा.पा./५८,आतुरप्रत्या./२४ । एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ नि.सा./१०२, भा.पा./५९,आतुरप्रत्या./२६ । सम्मं मे सव्वभूदेसु वे मज्झं ण केणवि। आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवजए॥ नि.सा./१०४,आतुरप्रत्या./२२। दंसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझंति॥ दंसणपाहुड/३, बारसाणुवेक्खा/१९, भक्तिपरिज्ञा /६६। ९०. डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ / पृ.४३। ९१. कुन्दकुन्द की गाथाओं से साम्य रखनेवाली 'आतुरप्रत्याख्यान' एवं 'भक्तपरिज्ञा' की गाथाओं का उल्लेख सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी ने 'भगवती-आराधना' (शोलापुर) की प्रस्तावना (पृ.२७) में तथा डॉ० सागरमल जी ने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' (पृ. १९२१९३) में किया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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