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________________ अ० १३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ७१ अध्ययन में ४ से लेकर ८ उद्देशक हैं। और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन और प्रत्येक अध्ययन में कई उद्देशक हैं। इनके अतिरिक्त चार चूलाएँ हैं। ये गद्यांश हैं, इन्हें तो कोई कण्ठस्थ भी नहीं कर सकता, स्मृति में सुरक्षित रखना तो दूर की बात। कल्पसूत्र में भी कहीं-कहीं आधे-आधे पृष्ठ के गद्यांश हैं। ज्ञातृधर्मकथा तो अनेक कथाओं का संग्रहग्रन्थ है। इनकी तुलना में तत्त्वार्थसूत्र तो अत्यन्त लघुकाय ग्रन्थ है। उसे कण्ठस्थ करना अत्यन्त सरल है। सभी श्रमणों और अनेक श्रावकों को वह कण्ठस्थ होता है। अतः डॉक्टर सा० के तर्क के अनुसार आचारांग, ज्ञातृधर्मकथा, कल्पसूत्र आदि अनेक आगमग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र से बहुत बाद के सिद्ध होंगे, जब कि वे उससे पूर्वकालीन हैं। जिस प्रकार आचारांगादि आगमग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा विशालकाय होने पर भी तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन सिद्ध नहीं होते, उसी प्रकार भगवती-आराधना भी अपने बृहदाकार के कारण उपर्युक्त प्रकीर्णक ग्रन्थों से अर्वाचीन सिद्ध नहीं होती। ___ इस प्रकार ग्रन्थ के बृहदाकार होने का धर्म आचारांगादि प्राचीन ग्रन्थों में भी व्याप्त होने तथा तदपेक्षया तत्त्वार्थसूत्रादि अर्वाचीन ग्रंथों में अव्याप्त होने से अतिव्याप्ति एवं अव्याप्ति दोषों से युक्त है, अतः वह अर्वाचीनता का लक्षण नहीं है। फलस्वरूप वह हेत्वाभास है। उसके हेत्वाभास होने से भगवती-आराधना को आउरपच्चक्खाण, भक्तपरिण्णा आदि प्रकीर्णक ग्रन्थों से अर्वाचीन मानना भ्रान्तिजनित निष्कर्ष है। ७.४. वर्ण्यविषय की समानता रचनाकाल की समानता का लक्षण नहीं यापनीयपक्षधर विद्वान् ने भगवती-आराधना और भाष्य-चूर्णियों में 'विजहना' के वर्णन की समानता के कारण उन्हें समकालीन माना है। (देखिए , उपर्युक्त उद्धरण / जै. ध. या. स. / पृ.१२९-१३०) यदि ऐसा माना जाय, तो भगवती-आराधना द्वादशानुप्रेक्षा के वर्णन की समानता से मरणविभक्ति-कालीन, गुणस्थान-चतुर्विधध्यान आदि के वर्णनसाम्य से तत्त्वार्थसूत्रकालीन, अचेलत्व के गुणों के वर्णनसादृश्य से आचारांग-कालीन और कुन्दकुन्द की गाथाओं से साम्य रखनेवाली गाथाओं के समावेश से कुन्दकुन्दकालीन सिद्ध होगी। तथा यदि कोई विद्वान् आज प्राकृत में ग्रन्थ लिखकर उसमें 'विजहना' का उल्लेख करे, तो भगवती-आराधना के इक्कीसवीं सदी ई० में रचित होने का प्रसंग आयेगा। अतः वर्ण्यविषय की समानता किसी ग्रन्थ के रचनाकाल के निर्धारण का हेतु सिद्ध नहीं होती। अतः वह हेत्वाभास है। यतः भगवती-आराधना प्रथम शताब्दी ई० का ग्रन्थ है एवं आवश्यकनियुक्ति तथा उपलब्ध प्रकीर्णक ग्रन्थ पाँचवी शती ई० के बाद रचे गये हैं, अतः समान गाथाओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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