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७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३/प्र०२ मात्र दिये गये हैं। इससे सिद्ध होता है कि जो महाप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति आदि ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध हैं, वे नन्दीसूत्र की रचना के बाद अर्थात् ५ वीं शती ई० के पश्चात् रचे गये हैं।
___ दूसरी बात यह है कि भक्तपरिज्ञा (भत्तपरिण्णा) तो डॉक्टर सा० के ही कथनानुसार ११वीं शती ई० का ग्रन्थ है तथा उपलब्ध आतुरप्रत्याख्यान (वीरभद्ररचित), जिसकी गाथाओं को भगवती-आराधना में गृहीत माना गया है, वह भी ११वीं शती ई० में रचा गया है। भद्रबाहु-द्वितीयकृत आवश्यकनियुक्ति का रचनाकाल तो छठी शती ई० (विक्रम सं. ५६२ के लगभग)९ सर्वस्वीकृत है। इस प्रकार सिद्ध है कि आवश्यकनियुक्ति
और प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवती-आराधना के बाद रचे गये हैं। फलस्वरूप उन्हें भगवतीआराधना से पूर्ववर्ती सिद्ध करने के लिए बतलाया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है। ७.३. ग्रन्थ का बृहदाकार अर्वाचीनता का लक्षण नहीं ___ यापनीयपक्षधर विद्वान् के उपर्युक्त वक्तव्य (जै.ध.या.स./पृ.१२९-१३०) में तीसरा तर्क यह है कि "भगवती-आराधना बृहदाकार ग्रन्थ है, जब कि आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारग, मरणसमाही आदि प्रकीर्णक ग्रन्थ आकार में लघु हैं। प्राचीन ग्रन्थ प्रायः आकार में लघु होते हैं, क्योंकि उन्हें मौखिकरूप से याद रखना होता था। इसलिए सिद्ध है कि भगवती-आराधना इन प्रकीर्णक ग्रन्थों के बाद की रचना है।"
यदि मान्य विद्वान् के इस तर्क को उचित मान लिया जाय, तो आचारांग, कल्पसूत्र, ज्ञातृधर्मकथा जैसे आगमग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन सिद्ध होंगे, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में छोटे-छोटे ३५७ सूत्र हैं, जो दस-बारह पृष्ठों में समा जाते हैं, जबकि आचारांग में सूत्र नहीं, आधे-आधे पृष्ठ के गद्यांश हैं और कोई-कोई तो एक-एक पृष्ठ के हैं तथा इनसे दो श्रुतस्कन्ध भरे हुए हैं, जिनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध में ९ अध्ययन और प्रत्येक
इन विच्छिन्न शास्त्रों में मरणविभक्ति आदि का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-मरणविभक्ति, इसमें मरण के १७ भेदों के स्वरूप, फल आदि का वर्णन था। आतुरप्रत्याख्यान, इसमें असाध्य ग्लान मुनि को विधिवत् आहार की कमी करते हुए भक्त-प्रत्याख्यान की विधि का वर्णन था। महाप्रत्याख्यान, इसमें भव के अन्त में किये जानेवाले अनशन आदि महाप्रत्याख्यानों का वर्णन था।" (नन्दीसत्र / पृष्ठ ४०२/ अ.भा. साधुमार्गी जैन संस्कृतिरक्षकसंघ, सैलाना म.प्र., सन् १९८४)। यहाँ भूतकालीन क्रियाओं के प्रयोग से सूचित होता है कि ये ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं, अतः इनके नाम से जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनकी रचना नन्दीसूत्र की रचना के बाद की गई है। भगवती-आराधना की कथित गाथाएँ इन्हीं परवर्ती
ग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं। ८९. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (सन् १९७७)। पृ. ४३८
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