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अ०१३/प्र०२
भगवती-आराधना / ६९ कि भगवती-आराधना में है। इससे सिद्ध होता है कि प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचनाकाल तक गुणस्थान-सिद्धान्त का विकास नहीं हुआ था, अतः प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवती-आराधना से पूर्वकालीन हैं। इसलिए उक्त समान गाथाएँ भगवती-आराधना से प्रकीर्णक ग्रन्थों में नहीं पहुँच सकतीं, फलस्वरूप प्रकीर्णक ग्रन्थों से ही भगवती-आराधना में पहुँची हैं।"
किन्तु उक्त विद्वान् का गुणस्थान-विकासवाद सर्वथा कपोलकल्पित है, यह 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। गुणस्थान-सिद्धान्त भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट है, अतः उसके विकसित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। यतः गुणस्थान-विकासवाद का हेतु असत्य है, अतः यह निष्कर्ष भी असत्य है कि प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवती-आराधना से पूर्वकालीन हैं। ७.२. प्रकीर्णकों की रचना 'आराधना' के पश्चात् ____ यापनीयपक्षधर विद्वान् ने उपर्युक्त वक्तव्य (जै.ध.या.स./पृ.१२९-१३०) में प्रकीर्णक ग्रन्थों के भगवती-आराधना से पूर्ववर्ती होने का जो यह हेतु बतलाया है कि उनका उल्लेख नन्दीसूत्र और मूलाचार जैसे प्राचीन ग्रन्थों में हुआ है, वह भ्रामक है। आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में सिद्ध किया गया है कि भगवती-आराधना का रचनाकाल प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध है, और यह श्वेताम्बर स्रोतों से ही सिद्ध है कि भद्रबाहु-द्वितीयकृत आवश्यकनियुक्ति का रचनाकाल छठी शती ई० (वि० सं० ५६२, ई० सन् ५०५) है। तथा उपलब्ध प्रकीर्णक ग्रन्थों में वीरभद्ररचित आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा (भत्तपरिण्णा), आराधनापताका तथा चउसरण (चतुःशरण) ग्यारहवीं शती ई० (१००८ या १०७८ ई०) के हैं।८५ महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि के रचयिताओं के नाम अनुपलब्ध हैं, इसलिए इतिहास-लेखकों ने इनके काल का निर्देश नहीं किया है। ६ नन्दीसूत्र (५वीं शती ई०) में आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति, देवेन्द्रस्तव आदि प्रकीर्णकों के नामों का उल्लेख है। अतः डॉ० सागरमल जी ने इनका रचनाकाल ५वीं शती ई० से पहले माना है, किन्तु नन्दीसूत्र की हिन्दीविवेचना में मुनि श्री लालमुनि जी एवं मुनि श्री पारसकुमार जी ने लिखा है कि इनका विच्छेद हो गया है।८ अर्थात् नन्दीसूत्र में इन विच्छिन्न प्रकीर्णकों के नाम
८४. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ. ४३८ ८५. डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ/खण्ड २/पृ.४४ । ८६. वही/ पृ.४५। ८७. वही/ पृ.४४। ८८. नन्दीसूत्र की हिन्दी-विवेचना में २९ प्रकार के उत्कालिक शास्त्रों का वर्णन करने के बाद
कहा गया है कि "इनमें से ८ विद्यमान हैं तथा २१ का विच्छेद हो गया है। (पृष्ठ ४०२)।
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