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________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ७९ में आयी उवकप्पेंति (उपकल्पन्ते, उपकल्पयन्ति) क्रिया में उप-1 क्लृप् अथवा उपक्लृिप्+णिच् ('कल्पयेत्'-वि.टी./भ.आ./गा.६६१) धातु का अर्थ प्रबन्ध करना है। अपराजित सूरि ने इसका अर्थ 'आनयन्ति' (लावें) किया है, वह भी घटित हो जाता है। यहाँ उपकल्पयन्ति का यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि मुनि स्वयं भोजन बनावें या श्रावकों के यहाँ से खुद याचना करके पात्रों में रखकर लावें। पाणितलभोजी शिवार्य का यह आशय हो ही नहीं सकता। उनका अभिप्राय यह है कि चार मुनि (अकेले मुनि का विहार निषिद्ध है) बस्ती में जाकर श्रावकों को संस्तरारूढ़ क्षपक मुनि के लिए योग्य आहारपान की आवश्यकता का संकेत करें, सूचना दें। सूचना पाकर श्रावक स्वयं योग्य आहार लेकर उपस्थित हो जायेंगे। जो क्षपक मुनि संस्तरारूढ़ है, निर्बलता के कारण चलने में असमर्थ है और अभी आहार-पान के सर्वथा त्याग की स्थिति नहीं आई है, उसके लिए आहारपान की व्यवस्था का यही उपाय हो सकता है। प्राचीन काल में मुनि बस्तियों से दूर ठहरते थे। आहार के लिए बस्तियों में जाते थे। इसलिए रुग्ण या संस्तरारूढ़ क्षपक के लिए भी वहीं से आहार की व्यवस्था करानी पड़ती थी। इस प्रकार वैयावृत्य में लगे मुनियों के द्वारा श्रावकों को संकेत कर क्षपक के लिए आहार का प्रबन्ध कराना ही आहार-पान को उपकल्पित करना है। यह दिगम्बरसिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी प्रवचनसार में कहा है रोगेण वा क्षुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं। .. दिट्ठा समणं साहू पडिवजदु आदसत्तीए॥ ३/५२॥ वेजावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं। लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोवजुदा॥ ३/५३॥ अनुवाद-"यदि कोई श्रमण रोग, भूख, प्यास अथवा थकावट से पीड़ित दिखाई दे, तो साधु को उसकी यथाशक्ति वैयावृत्य (सेवा) करनी चाहिए। रोग से पीड़ित गुरु (आचार्य), बाल (आयु में छोटे) तथा वृद्ध (आयु में बड़े) श्रमणों की वैयावृत्य के लिए यदि लौकिक-जनों से भी बातचीत करना आवश्यक हो, तो वह निन्दनीय नहीं है।" इससे स्पष्ट है कि मुनिगण रुग्ण या संस्तरारूढ़ क्षपक-मुनियों की वैयावृत्य हेतु आहारपान, औषधि आदि की व्यवस्था करने के लिए श्रावकों को निर्देश दे सकते हैं। यह दिगम्बर-सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। अतः भगवती-आराधना की उक्त गाथाओं को दिगम्बर-सिद्धान्त के प्रतिकूल मानकर शिवार्य को यापनीय सिद्ध करने का प्रयास यथार्थविरोधी है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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