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________________ ८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १३ / प्र० २ दीवान अमरचन्द्र जी की दृष्टि में भी मुनियों के द्वारा क्षपक के लिए इस प्रकार आहारपान का प्रबन्ध किया जाना अयुक्त नहीं था। पं० नाथूराम जी प्रेमी स्वयं इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि कवि वृन्दावन जी ने दीवान अमरचन्द्र जी से उपर्युक्त गाथाओं के औचित्य के विषय में जो प्रश्न किया था, उसके उत्तर से प्रतीत होता है कि "दीवान जी को मुनि का केवल स्वयं रसोई बनाना अयुक्त मालूम होता है, भोजन लाकर देना नहीं। परन्तु पं० सदासुखदास जी चूँकि ज्यादा कड़े तेरापन्थी थे, इस कारण उन्हें आहार लाकर देना भी ठीक नहीं जँचता था । ' १०० किन्तु सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने प्राचीनकाल की परिस्थितियों में मुनियों द्वारा आहार लाकर दिया जाना भी उचित माना है । वे लिखते हैं- " ज्ञानीजन यह जानते हैं कि जब क्षपक संस्तर पर आरूढ़ होता है, तब उसकी शारीरिक स्थिति कैसी होती है। वह गोचरी नहीं कर सकता। जब तक गोचरी करने में समर्थ होता है, तब तक संस्तरारूढ़ नहीं किया जाता। ऐसी स्थिति में यदि उसे भूखा-प्यासा रखा जाये, तो उसके परिणाम स्थिर नहीं रह सकते। अतः उस युग में जब साधु वनों में निवास करते थे, तब ऐसे मरणासन्न साधु के लिए यही व्यवस्था सम्भव थी कि अन्य साधु उसके योग्य खान-पान विधिपूर्वक लावें और उसे विधिपूर्वक देवें । आज की तरह उस समय साधुओं के निवासस्थान पर जाकर श्रावकों के चौके तो लगते नहीं थे, और लगते भी, तो इस प्रकार के उद्दिष्ट भोजन को वे स्वीकार नहीं कर सकते थे। गाथा में आहार लाने का स्पष्ट विधान है, अतः बनाकर देने की कोई बात ही नहीं है। इसलिए उक्त कथन दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध नहीं है। समाधि एकदो दिन में नहीं होती । उसमें समय लगता है और वही समय वैयावृत्य का होता है। १०१ इस प्रकार 'भगवती आराधना' की गाथाओं में वर्णित जो आचार दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं है, उसे प्रतिकूल मान लिया गया है और उसे भगवती - आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए हेतुरूप में प्रस्तुत किया गया है। किन्तु यह हेतु असत्य है, अतः इसके आधार पर किया गया निर्णय भी असत्य है । अर्थात् भगवती - आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है । १००. पं. नाथूराम जी प्रेमी : 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ।' अनेकान्त' / वर्ष १ / किरण ३ / माघ, वी.नि.सं. २४५६ / पादटिप्पणी / पृष्ठ १५० । १०१. भगवती - आराधना (जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर ) / प्रस्तावना / पृ. ३५ । विशेष- यदि श्रावक किसी दूर स्थान में ठहरे हुए साधुओं के दर्शनार्थ जाते हैं और वहाँ वे भी ठहरकर अपने लिए भोजन बनाते हैं तथा उसमें से साधुओं को आहारदान करते हैं, तो वह उद्दिष्ट की परिभाषा में नहीं आता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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