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________________ अ० १३ / प्र० २ भगवती - आराधना / ८१ १० 'तालपलंबसुत्तम्मि' में 'कल्प' के सूत्र का उल्लेख नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी — "गाथा ११२३ नं. की 'देसामासियसुत्तं " १०२ में तालपलंबसुत्तम्मि पद में जिस सूत्र का उल्लेख किया गया है, वह कल्पसूत्र (बृहत्कल्प) का है, जिसका प्रारंभ है तालपलंबं पण कप्पदि । इसकी विजयोदयाटीका में तथा चोक्तं कहकर 'कल्प' की दो गाथाएँ और दी और वे ही आशाधर ने 'कल्पे' कहकर उद्धृत की हैं। " (जै.सा.इ./ द्वि.सं./पृ.७१ ) । तात्पर्य यह कि भगवती - आराधना में बृहत्कल्प के ताल लंब सूत्र का उल्लेख होना उसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करता है । दिगम्बरपक्ष देसामासियसुत्तं गाथा नीचे दी जा रही है। यह आचेलक्कुद्देसिय गाथा (४२३) से उत्पन्न शंका के समाधान में लिखी गई है। 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा में मुनि के लिए दस स्थितिकल्पों का विधान किया गया है, जिनमें प्रथमकल्प आचेलक्य है। आचेलक्य का अर्थ है वस्त्र का त्याग । यहाँ शंका उत्पन्न होती है कि 'आचेलक्य' शब्द से क्या केवल वस्त्र का ही त्याग सूचित होता है, क्षेत्र, वास्तु, पात्र आदि का नहीं ?१०३ इसका समाधान भगवती आराधना की निम्नलिखित गाथा के द्वारा किया गया है देसामासियसुत्तं आचेलक्कंति तं खु ठिदिकप्पे । लुत्तोत्थ आदिसद्दो जह तालपलंबसुत्तम्मि ॥ १११७ ॥ ". अनुवाद — “ दस प्रकार के स्थितिकल्पों में जो 'आचेलक्यसूत्र' है वह 'तालप्रलम्बसूत्र' के समान देशामर्शक है। यहाँ 'चेल' शब्द के साथ जुड़े 'आदि' शब्द का लोप हो गया है, जैसे 'तालप्रलम्बसूत्र' में 'ताल' शब्द के साथ जुड़े 'आदि' शब्द का । देशामर्शक सूत्र का अर्थ है उपलक्षक वचन, अर्थात् एक पदार्थ के उल्लेख द्वारा तत्सदृश सभी पदार्थों का बोध करानेवाला संक्षिप्त लाक्षणिक शब्द या मुहावरा । जैसे कोई घर से बाहर जाते समय अपने पुत्र को आदेश देता है कि 'कौओं से Jain Education International १०२. जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर से सन् १९७८ में तथा फलटण से सन् १९९० में प्रकाशित भगवती-आराधना में इस गाथा का क्रमांक १११७ है। १०३. “ श्रुतं चेलपरित्यागमेव सूचयति आचेलक्कमिति नेतरत्यागमित्याशङ्कायामाचष्टे – देसामासियसुत्तं।" (विजयोदयाटीका / पातनिका / भगवती - आराधना /गाथा १११७ / पृ.५७२) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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