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________________ ८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ दही बचाना' (काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्), तो उसका आशय केवलं कौओं से ही नहीं है, अपितु दही को हानि पहुँचानेवाले सभी पशु-पक्षियों से है। अतः 'कौआ' शब्द सभी दधि-घातक पशुपक्षियों का उपलक्षक या देशामर्शक है। वैसे ही 'आचेलक्य' शब्द केवल चेल-परित्याग का वाचक नहीं है, अपितु चेल के साथ क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, भाण्ड (पात्र) आदि समस्त (दस प्रकार के) परिग्रह के त्याग का उपलक्षक है। 'चेल' शब्द के साथ समस्त परिग्रह का संकेत करनेवाला 'आदि' शब्द जुड़ा था, उसका लोप हो गया है, जिससे वह शेष परिग्रह का वाचक न रहकर उपलक्षक या देशामर्शक बन गया है। शिवार्य ने इसका उदाहरण तालप्रलंब-सूत्र से दिया है। इस उदाहरण के द्वारा वे स्पष्ट करते हैं कि जैसे 'तालप्रलम्बसूत्र' में 'ताल' शब्द केवल ताड़वृक्ष का बोधक नहीं है, अपितु सभी प्रकार की वनस्पतियों का उपलक्षक है,१०४ वैसे ही 'आचेलक्य' पद में 'चेल' शब्द मात्र वस्त्र का वाचक नहीं है, अपितु सभी प्रकार के परिग्रह का उपलक्षक है। अतः चेलपरित्याग के विधान से सकलपरिग्रह के त्याग का विधान सूचित होता है।१०५ __ 'तालप्रलम्ब' शब्द श्रुतकेवली भद्रबाहु (वीर नि० सं० १७०) द्वारा रचित कहे जानेवाले श्वेताम्बर-आगम बृहत्कल्पसूत्र के "नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहत्तए" (साधु-साध्वियों को कोई भी वनस्पति कच्ची [अपक्व] और विना छिन्न-भिन्न किये नहीं खानी चाहिए), इस सूत्र में भी आया है। टीकाकार अपराजित सूरि ने इसे तथा इसके भाष्य की दो गाथाएँ १०६ उद्धृत कर श्वेताम्बर जिनकल्पी साधओं को लक्ष्य करते हुए इस तथ्य को पुष्ट करने का प्रयत्न किया है कि जैसे बृहत्कल्प के उपर्युक्त सूत्र में तालप्रलम्बसूत्र देशामर्शक है, अतः सभी प्रकार की वनस्पति को अपक्व और अभग्न अवस्था में खाने का निषेध करता है, वैसे ही भगवती-आराधना में 'आचेलक्यसूत्र' भी देशामर्शक है, अतः उसमें 'चेल' शब्द के द्वारा वस्त्रपात्रादि सकल परिग्रह के त्याग का विधान किया गया है। इससे पंडित नाथूराम जी प्रेमी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि शिवार्य ने तालपलंबसुत्तम्मि पद में सुत्त शब्द से बृहत्कल्प के 'नो कप्पइ निग्गंथाण' १०४. " तालपलंबं ण कप्पदिति सूत्रे तालशब्दो न तरुविशेषवचनः किन्तु वनस्पत्येकदेशस्तरुविशेष उपलक्षणाय वनस्पतीनां गृहीतः।" विजयोदयाटीका/भगवती-आराधना/गा. १११७/ पृ.५७३ । १०५. "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलग्रन्थत्याग आचेलक्यशब्दस्यार्थ इति।" विजयोदया - टीका / भ.आ./गा.१११७ / पृ.५७३। १०६. देखिए, उद्धृत गाथाएँ आगे विन्दु क्र. ५ के अन्तर्गत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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