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________________ २६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ /प्र०१ परीषह का क्या अर्थ है यह समझ लेना चाहिए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि परीषहसूत्र में 'नाग्न्यपरीषह' शब्द का प्रयोग किया गया है, क्षुधापरीषह, तृषापरीषह आदि के समान 'कामपरीषह' शब्द का नहीं। इससे यह निश्चित हो जाता है कि सूत्रकार का जोर शरीर के नग्नरूप पर है। तथा "नाग्न्यपरीषह चारित्रमोहनीय के उदय से होता है।"२२ इस कथन से यह निश्चित होता है कि यहाँ नग्न शरीर पर शीत, उष्ण आदि वेदनीय-कर्मोदयजनित परीषह विवक्षित नहीं हैं, अपितु कषायजनितपरीषह विवक्षित है। और नग्नत्व से सम्बन्धित परीषह उत्पन्न करनेवाली कषायें दो हैं-जुगुप्सा२३ और पुंवेद।२४ जुगुप्सा-नोकषाय के उदय से अपने नग्न शरीर की बीभत्सता देखकर स्वयं को लज्जा का अनुभव हो सकता है तथा पुंवेदनोकषाय के उदय से नग्नता (लिंग) में विकृति उत्पन्न हो सकती है, जिसके लोकदृष्टिगोचर होने से लोकापवाद की स्थिति आना संभव है। ज्ञानवैराग्य के बल से इन दोनों स्थितियों को उत्पन्न न होने देना नाग्न्यपरीषहजय है। वस्त्रधारी या चोलपट्टधारी को ये दोनों प्रकार के नाग्न्यपरीषह नहीं हो सकते। नग्नता दिखायी न देने से लज्जानुभव का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि कभी कामोद्रेक के फलस्वरूप लिंग में विकार उत्पन्न होता है, तो वह वस्त्रावरण के कारण प्रकट नहीं हो पाता।२५ अतः नाग्न्यपरीषह संभव न होने से वस्त्रधारी के लिए नाग्न्यपरीषहजय का उपदेश उपपन्न नहीं होता। भट्ट अकलंकदेव नाग्न्यपरीषहजय का अभिप्राय प्रकट करते हुए लिखते हैं- . "जातरूपधरणं नाग्न्यम्। १०। ---नाग्न्यमभ्युपगतस्य स्त्रीरूपाणि नित्याशुचिबीभत्सकुणपभावेन पश्यतो वैराग्यभावनावरुद्धमनोविक्रियस्याऽसम्भावितमनुष्यत्वस्य नाग्न्यदोषा-संस्पर्शनात् परीषहजयसिद्धिरिति जातरूपधारणमुत्तमं श्रेयःप्राप्तिकारणमित्युच्यते। इतरे पुनर्मनोविक्रियां निरोद्भुमसमर्थास्तत्पूर्विकाङ्गविकृतिं निगृहितकामाः कौपीनफलक-चीवराद्यावरणमातिष्ठन्ते अङ्गसंवरणार्थमेव तन्न कर्मसंवरकारणम्।" (त.रा.वा./९/९/१०/पृ. ६०९)। अनुवाद-"जन्म के समय का रूप धारण करना नाग्न्य कहलाता है। जिसने नग्न रूप धारण कर लिया है, वह साधु स्त्रीरूप को अपवित्र, बीभत्स और शवकंकाल के समान समझता हुआ वैराग्यभावना से मनोविकार का निरोध करता है, जिससे जननांग २२. "चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः।" तत्त्वार्थसूत्र /९/१५ । २३. "नाग्न्यं जुगुप्सोदयात्।" हारिभद्रीयवृत्ति / तत्त्वार्थसूत्र /९/१५/पृ. ४६७। २४. "पुंवेदोदयादिनिमित्तत्वान्नाग्न्यादिपरीषहाणां मोहोदयनिमित्तत्वं प्रतिपद्यामहे ।" सर्वार्थसिद्धि । ९/१५। २५. "स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षणार्थं च पटश्चोलपट्टो मत इति।" हेम.वृत्ति/विशे.भा./ गा.२५७५ २५७९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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