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________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २६५ के प्रयत्न में जो जीवघात होता है, उसको रोकते हैं। देखिये, निम्मलिखित गाथा किं संजमोवयारं करेइ वत्थाई जइ मई सुणसु। सीयत्ताणं ताणं जलण-तणगयाण सत्ताणं॥ २५७५ ॥ वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्रसूरि इसका खुलासा करते हुए लिखते हैं"सौत्रिकौर्णिककल्पैस्तावत् शीतार्तानां त्राणं साधूनामार्तध्यानापहरणं क्रियते।--- कल्पाः प्रावृताः सन्तो निर्विजं स्वाध्यायध्यानसाधनं कुर्वन्ति, शीतार्त्यपहरणादिति।" (हेम. वृत्ति / विशे.भा./गा.२५७५)। अनुवाद-"सूती-ऊनी कल्पों (शरीरप्रमाण चादरों) को ओढ़ लेने से शीत से पीड़ित साधुओं की रक्षा होती है, उनके आर्तध्यान का अपहरण होता है।---चूँकि कल्प ओढ़ लेने पर शीत की पीड़ा दूर हो जाती है, इसलिए साधु विनिघ्न होकर स्वाध्याय और ध्यान की साधना करते हैं।" इस कथन से स्पष्ट होता है कि सूती-ऊनी चादर ओढ़ लेने पर शीत की पीड़ा रंचमात्र भी नहीं होती और इतना आराम महसूस होता है कि स्वाध्याय और ध्यान चैन से निवृत्त हो जाते हैं। भगवती-आराधना की टीका में अपराजितसूरि ने उत्तराध्ययनसूत्र का हवाला देते हुए कहा है "इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमशकतृणस्पर्शपरीषहनवचनं परीषहसूत्रेषु। न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते।" (वि.टी. / गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२६)। __अनुवाद-"शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषह नग्न पुरुष पर ही घटित होते हैं। जो शरीर को वस्त्र से आच्छादित कर लेता है, उसे शीतादि की पीड़ा ही नहीं होती, तब उसे परीषहजय का अवसर कैसे मिल सकता है?" इन श्वेताम्बर-आगमवचनों और दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि के वचनों से ही सिद्ध होता है कि वस्त्रधारी को शीतादि परीषह नहीं होते, नग्न मुनि को ही होते हैं। शीतादि परीषहों से बचने के लिए आचारांगादि में भिक्षु को तीन-तीन तक चादर रखने की अनुमति दी गई है, कम्बल का प्रावधान किया गया है। अतः डॉ० सागरमल जी का यह कथन श्वेताम्बर आगमों से ही बाधित हो जाता है कि सचेल को भी शीतादिपरीषह होते हैं। १.३.३. चोलपट्टधारी को नाग्न्यपरीषह संभव नहीं-हाँ, जिसके पास सम्पूर्ण शरीर को ढंकने के लिए सूती या ऊनी वस्त्र नहीं हैं, जो केवल नग्नता को छिपाने के लिए कटिबन्ध या चोलपट्ट धारण करता है, उसे शीतोष्णदंशमशकादि परीषह होते हैं, तथापि नाग्न्यपरीषह नहीं होता, जो शीतादिपरीषहों से कई गुना दुस्सह है। नाग्न्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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