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________________ ७४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ युवां सुकुमाराङ्गावनध्यासित-परीषहौ। शक्नुथो न व्रतं जैनं ग्रहीतुं मुग्धचेतसौ॥ २३७ ।। विधातुमधुना युक्तं धर्मं क्षुल्लकसेवितम्। चरमं युवयोर्दास्ये धर्म दैगम्बरं परम्॥ २३८॥ दोनों राजकुमार मुनिवर की आज्ञा स्वीकार कर लेते हैं। पहले वे क्षुल्लक बन जाते हैं, बाद में उन्हीं मुनिराज से मुनिदीक्षा ग्रहण करते हैं क्षुल्लको क्षौल्लकं धर्मं हित्वा वैराग्यसङ्गतौ। तदा निजगुरोः पार्वे मुनिदीक्षामुपागतौ॥ २९९॥ ४. ग्रन्थकार ने बृहत्कथाकोश के भद्रबाहुकथानक (क्र.१३१) में श्वेताम्बर स्थविरकल्प (सचेललिंग) को शिथिलाचारी अर्धफालक साधुओं के द्वारा कल्पित बतलाते हुए वस्त्रधारण को मुक्ति में बाधक एवं नग्नत्व को मुक्ति का साधक सिद्ध किया है तथा अन्य कई स्थानों पर दैगम्बरी दीक्षा को ही सर्वकर्मविनाशक बतलाया है।१२ ___ इन प्रमाणों से बृहत्कथाकोशकार का अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें गृहस्थमुक्ति मान्य नहीं हैं। इसलिए अशोक-रोहिणी कथानक (क्र. ५७) के अणुव्रतधरः कश्चिद् श्लोक में जो सिद्धि चाहनेवाले गृहस्थ को मौनव्रत के द्वारा सिद्धि प्राप्त होने की बात कही गई है, वहाँ सिद्धि का अर्थ मोक्ष की प्राप्ति नहीं है, अपितु अनेक प्रकार के अभिलषित लौकिक पदार्थों की प्राप्ति है, यह अशोक-रोहिणीकथानक के निम्नलिखित श्लोकों से स्पष्ट है यशोव्याप्तसमस्ताशे मृदुमन्थरगामिनि। वदामि तेऽधुना वत्से मौनव्रतफलं शृणु॥ ५५९॥ श्रवःसुखं मनोहारि लोकप्रत्ययकारणम्। प्रमाणभूतमादेयं वचनं मौनतो नृणाम्॥ ५६०॥ देवशेषामिवाशेषामाज्ञामस्य प्रतीच्छति। मस्तकेन जनो यस्मात्तन्मौनफलमुत्तमम्॥ ५६१॥ यच्च किञ्चित्कृतं तेन भयरोषविषापहम्। तत्ससमस्तं भवेल्लोके येन मौनं चिरं कृतम्॥ ५६२॥ मधुराक्षरसंयुक्तं मुखपद्मं मनोहरम्। मौनेन जायते पुंसां नानार्थरुचिभाषणम्॥ ५६३॥ १२. देखिये, आगे 'सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण।' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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