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________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७४७ अपि दुःसाध्यतां प्राप्ताः सर्वलोकफलप्रदाः। विद्याः सिध्यन्ति सर्वेषां चिरं मौनव्रतं कृतम्॥ ५६४॥ यदसाध्यं भवेत्कार्यमतिसंशयकारणम्। तत्तस्य वाक्यतः सिद्धिमेति मौनफलाद् भुवि॥ ५६५॥ ध्यायन्ति मुनयो ध्यानं येन कर्मविनाशनम्। मौनेन हि सदा तस्मान्मौनं सर्वार्थसाधनम्॥ ५६६॥ अणुव्रतधरः कश्चिद् गुणशिक्षाव्रतान्वितः। सिद्धिभक्तो व्रजेत्सिद्धिं मौनव्रतसमन्वितः॥ ५६७॥ अनुवाद-(रूपकुम्भ मुनि वसुमती नामक कन्या को मौनव्रत के फल बतलाते हुए कहते हैं)- "हे समस्त दिशाओं में व्याप्त यशवाली, मृदुमन्थरगामिनी वत्से! मैं तुम्हें मौनव्रत के फल बतलाता हूँ, सुनो। मौन से मनुष्य को कर्णप्रिय, मनोहारी तथा लोगों के लिए विश्वसनीय, प्रमाणभूत वचनों की प्राप्ति होती है। मौन से मनुष्य को इन्द्र के समान ऐश्वर्य प्राप्त होता है, जिससे लोग उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। जो चिरकाल तक मौन की साधना करता है वह भय, रोष ओर विष का अपहार करने के लिए जो कुछ करता है वह सभी सफल होता है। मौन से मनुष्य का मुखकमल मधुरभाषी और मनोहर हो जाता है। दीर्घकाल तक मौनधारण करने से समस्त लौकिक फल प्रदान करनेवाली दुःसाध्य विद्याएँ भी सबको सिद्ध हो जाती हैं। अत्यन्त संशयास्पद (संकट के कारणभूत) असाध्य कार्य भी उसके वचन बोलने मात्र से सिद्ध हो जाते हैं। मुनि मौनव्रत का अवलम्बन करके ही कर्मविनाशक ध्यान ध्याते हैं, अतः मौन समस्त पदार्थों का साधन है। कोई अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षाव्रतधारी श्रावक यदि मौनव्रत का पालन करता है तो वह जिस सिद्धि का भक्त होता है (जिस वस्तु का अभिलाषी होता है), वह उसे प्राप्त हो जाती है। इन वचनों के द्वारा आचार्य हरिषेण ने निम्नलिखित अर्थ प्रतिपादित किये हैं १. मौनं सर्वार्थसाधनम् (श्लोक ५६६) वाक्य के द्वारा स्पष्ट किया है कि मौन लौकिक फल और अलौकिकफल दोनों की प्राप्ति का साधन है। उससे इन्द्रपद, मनोहररूप, मधुर स्वर एवं वचन, दुःसाध्य विद्याएँ आदि लौकिक फलों की भी सिद्धि (उपलब्धि) होती है और कर्मविनाशक शुक्लध्यानरूप अलौकिक फल की भी। २. ध्यायन्ति मुनयो ध्यानं येन कर्मविनाशनम् (श्लोक ५६६) इन वचनों से स्पष्ट किया है कि मौन से मुनियों को ही कर्मविनाशक शुक्लध्यान की सिद्धि होती Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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