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________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३२७ (१/३१) के भाष्य में कहा गया है __ "अत्राह-अथ केवलज्ञानस्य पूर्वैर्मतिज्ञानादिभिः किं सहभावो भवति नेत्युच्यते केचिदाचार्या व्याचक्षते नाभावः किन्तु तदभिभूतत्वादकिञ्चित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत्। यथा वा व्यभ्रे नभति आदित्य उदिते भूरितेजस्त्वादादित्येनाभिभूतान्यतेजांसि ज्वलनमणिचन्द्रनक्षत्रप्रभृतीनि प्रकाशनं प्रत्यकिञ्चित्कराणि भवन्ति तद्वदिति। केचिदप्याहुःअपायसद्रव्यतया मतिज्ञानं तत्पूर्वकं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमनःपर्ययज्ञाने च रूपिद्रव्यविषये तस्मान्नैतानि केवलिनः सन्तीति।" (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३१ / पृ.५५-५६)। अनुवाद-"केवलज्ञान का पूर्ववर्ती मतिज्ञानादि के साथ सहभाव है या नहीं? इस विषय में कुछ आचार्य कहते हैं कि केवलज्ञान हो जाने पर भी मतिज्ञानादि का अभाव नहीं होता, अपितु ये केवलज्ञान से अभिभूत होकर अकिंचित्कर हो जाते हैं, जैसे केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर इन्द्रियाँ स्थित रहते हुए भी, कार्य करने में असमर्थ हो जाती हैं। अथवा जैसे निरभ्र आकाश में सूर्य का उदय होने पर उसके सातिशय तेज से अग्नि. रत्न. चन्द्रमा. नक्षत्र आदि अन्य पदार्थों का तेज दबकर प्रकाश करने में असमर्थ हो जाता है, वैसे ही केवलज्ञान के प्रकट होने पर अन्य ज्ञान स्वकार्य में असमर्थ हो जाते हैं। किन्तु कुछ अन्य आचार्यों का ऐसा कहना है कि मतिज्ञानादि केवली के नहीं हुआ करते, क्योंकि श्रोत्रादि इन्द्रियों से उपलब्ध तथा ईहित पदार्थ के निश्चय को अपाय (अवाय) कहते हैं और मतिज्ञान अपायस्वरूप है तथा वह सद्रव्यतया हुआ करता है अर्थात्, विद्यमान या विद्यमानवत् पदार्थ को ही ग्रहण करता है। किन्तु केवलज्ञान में ये दोनों बातें नहीं पायी जाती, अत एव वह केवलज्ञान के साथ नहीं रहता। और इसीलिए श्रुतज्ञान भी उसके साथ नहीं रह सकता, क्योंकि वह मतिज्ञानपूर्वक ही हुआ करता है, और अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान केवल रूपी द्रव्य को ही 'विषय करते हैं, अतएव वे भी उसके साथ नहीं रह सकते।" ____ यहाँ प्रस्तुत सूत्र के विषय में अन्य आचार्यों के मत उद्धृत किये गये हैं, जिससे ज्ञात होता है कि भाष्य के पूर्व भी तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकार हो चुके हैं। इसी प्रकार "सर्वस्य" (२/४३) सूत्र का भाष्य करते हुए भाष्यकार कहते हैं ___ "सर्वस्य चैते तैजसकार्मणे शरीरे संसारिणो जीवस्य भवतः। एके त्वाचार्या नयवादापेक्षं व्याचक्षते। कार्मणमेवैकमनादिसम्बन्धम्। तेनैवैकेन जीवस्यानादिः सम्बन्धो भवतीति। तैजसं तु लब्ध्यपेक्षं भवति। सा च तैजसलब्धिर्न सर्वस्य, कस्यचिदेव भवति।" (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/२/४३/पृ. ११४)। अनुवाद-“तैजस और कार्मण ये दो शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं। परन्तु कुछ आचार्य इस सूत्र की व्याख्या नयवाद की अपेक्षा से करते हैं। वे कहते Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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