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________________ ३२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ की चेष्टा की गयी है, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसी हालत में भाष्य को स्वयं मूलसूत्रकार उमास्वाति की कृति बतलाना और भी असंगत जान पड़ता है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ पृ. १३१-१३२)। श्वेताम्बराचार्य रत्नसिंह सूरि के इन वचनों से भी संकेत मिलता है कि भाष्यकार सूत्रकार से भिन्न व्यक्ति थे। ३.३. सटिप्पण प्रति में कुछ अधिक सूत्र श्वेताम्बराचार्य रत्नसिंहसूरि-कृत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सटिप्पण प्रति में तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की अपेक्षा कुछ अधिक सूत्र हैं, जो इस प्रकार हैं तैजसमपि ( २/५०), धर्मावंशाशैलाञ्जनारिष्टा माघव्या माघवीति च (३/२), उच्छ्वासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्याः (४/२३) स द्विविधः (५/४२), सम्यक्त्वं च (६/२१), धर्मास्तिकायाभावात् (१०/७)११३ इनमें से 'तैजसमपि', 'सम्यक्त्वं च' तथा 'धर्मास्तिकायाभावात्' ये तीन सूत्र तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरमान्य पाठ में मिलते हैं, श्वेताम्बरमान्य पाठ में नहीं। इसके अतिरिक्त दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में 'भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि' (३/ १०) पाठ है, किन्तु श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में इस सूत्र के आदि में तत्र शब्द का प्रयोग है। फिर भी रत्नसिंह सूरि ने इनमें से दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ ही स्वीकार किया है।१४ इससे ज्ञात होता है कि श्वेताम्बरपरम्परा में एक और सूत्रपाठ प्रचलित था, जिसमें दिगम्बरमान्य सूत्र संगृहीत थे। उसी से रत्नसिंह सूरि ने ये सूत्र उद्धृत किये हैं। यह इस बात का सबूत है कि श्वेताम्बर-परम्परा में भी उमास्वाति को सूत्रों का कर्ता निर्विवादरूप से नहीं माना गया है। यदि माना गया होता, तो भाष्यमान्य सूत्रों के अतिरिक्त अन्य सूत्रों को रत्नसिंह सूरि जैसे श्वेताम्बराचार्य मान्यता न देते। यह भी सिद्ध है कि उपर्युक्त अतिरिक्त सूत्रोंवाला सूत्रपाठ भाष्यमान्य सूत्रपाठ के पहले से ही अस्तित्व में रहा होगा, जो सिद्धसेनगणी आदि टीकाकारों की दृष्टि में नहीं आया। इसलिए उन्होंने उमास्वाति को ही सूत्रकार और भाष्यकार दोनों मान लिया। ३.४. भाष्य के पूर्व भी कुछ श्वेताम्बरटीकाएँ रचित तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उपलब्ध उल्लेखों से सिद्ध होता है कि उसके पूर्व भी तत्त्वार्थसूत्र पर टीकाएँ लिखी गई थीं। "एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्थ्यः" ११३. देखिये, पं. जुगलकिशोर मुख्तारकृत 'जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश'/ पृ. ११३ तथा सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी-कृत सर्वार्थसिद्धि की प्रस्तावना/पृ. २६ । ११४. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी : सर्वार्थसिद्धि-प्रस्तावना/पृ. २६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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