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________________ ३२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ हैं कि केवल कार्मणशरीर का ही अनादि सम्बन्ध है। एक उसके साथ ही जीव अनादि से सम्बद्ध होता है। तैजसशरीर तो लब्धि से उत्पन्न होता है और लब्धि सबको प्राप्त नहीं होती, किसी-किसी को ही होती है।" ___यहाँ स्पष्ट शब्दों में "सर्वस्य" सूत्र की टीका में पूर्व व्याख्याकारों का उल्लेख किया गया है। तथा "संयमश्रुतप्रतिसेवना---" (९/४९) सूत्र में निर्दिष्ट प्रतिसेवना का विवेचन करते हुए भाष्य में कहा गया है "प्रतिसेवना-पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनविरतिषष्ठानां पराभियोगाद् बलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति। मैथुनमित्येके।" (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/ ९/४९ / पृ. ४३३)। अनुवाद-"अहिंसादि पाँच मूलगुणों (महाव्रतों) तथा रात्रिभोजनत्याग, इन छह में से किसी एक को भी दूसरों के दबाव में आकर भंग करनेवाला मुनि पुलाक कहलाता है। कुछ आचार्यों का कथन है कि पुलाक मुनि दूसरों के द्वारा जबरदस्ती किये जाने पर मैथुन भी कर लेता है।" यहाँ भी पुलाक मुनि के विषय में पूर्वाचार्यों का मत वर्णित किया गया है। इन उल्लेखों से सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थाधिगम-भाष्यकार से पूर्व भी तत्त्वार्थसूत्र के अनेक टीकाकार हो चुके थे। अतः तत्त्वार्थसूत्र की रचना भाष्य लिखे जाने के बहुत पहले हो चुकी थी। फलस्वरूप सूत्र और भाष्य के कर्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। एककर्तृत्व के पक्षधर हेतुओं की हेत्वाभासता के प्रमाण सूत्र और भाष्य में सम्प्रदायभेद सिद्ध करनेवाले उपर्युक्त हेतुओं से, भाष्य में दर्शायी गयी विसंगतियों से तथा सूत्र और भाष्य के एककर्तृत्वविरोधी उपरिवर्णित अन्य स्पष्ट हेतुओं से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, एक व्यक्ति नहीं। अतः उन्हें अभिन्न सिद्ध करनेवाले समस्त हेतु हेत्वाभास हैं। उनकी हेत्वाभासता के प्रमाण आगे प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ४.१. स्वोपज्ञता सर्वमान्य नहीं है श्वेताम्बरपक्ष पं० सुखलाल जी संघवी का कथन है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की सबसे प्राचीन टीका सिद्धसेन गणी की है। उसमें तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की स्वोपज्ञता के सूचक निम्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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