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अ०१६ /प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / ३२९ लिखित उल्लेख हैं
___ "प्रतिज्ञातं चानेन 'ज्ञानं वक्ष्यामः' इति। अतस्तदनुरोधेनैकवचनं चकार आचार्यः।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति । १/९/ पृ.६९)।
___ "शास्तीति च ग्रन्थकार एव द्विधा आत्मानं विभज्य सूत्रकारभाष्यकाराकारेणैवमाह।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १/११ / पृ.७२)।
. "सूत्रकारादविभक्तोऽपि हि भाष्यकारो ---।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / २ / ४५ / पृ.२०५)।
__ "इति श्रीमदर्हत्प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायाम्।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / ७ / ३४ / पृ.१२०)।११५
संघवी जी का यह भी कथन है कि "भाष्यगत अन्तिम कारिकाओं में से आठवीं कारिका को याकिनीसूनु हरिभद्राचार्य ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में उमास्वातिकर्तृकरूप में उद्धृत किया है। भाष्य की प्रारंभिक अंगभूत कारिका के व्याख्यान में आचार्य देवगुप्त भी सूत्र और भाष्य को एककर्तृक सूचित करते हैं।" ११६
दिगम्बरपक्ष सिद्धसेन गणी के अन्तिम वचन में जो उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये पद है, उसका अर्थ 'उमास्वाति वाचक के द्वारा उपज्ञ ( रचित ) सूत्र और भाष्य' नहीं है, अपितु 'उमास्वाति वाचक द्वारा रचित सूत्रभाष्य' अर्थात् 'तत्त्वार्थसूत्र पर उमास्वाति वाचक द्वारा रचित भाष्य', यह अर्थ है। यह सूत्रभाष्ये पद में प्रयुक्त सप्तमी-एकवचन से सिद्ध है। यदि सूत्र और भाष्य दोनों अर्थ अभिप्रेत होते तो सूत्रभाष्ययोः ऐसा द्विवचनात्मक प्रयोग होता। इससे स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणी के प्रस्तुत उल्लेख से यह सिद्ध नहीं होता कि उमास्वाति सूत्र और भाष्य दोनों के कर्ता हैं। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री का भी मत है कि "यहाँ उमास्वातिवाचकोपज्ञ पद का सम्बन्ध सूत्र से न होकर उसके भाष्य से है।" (स.सि. / प्रस्ता. / पृ. ६५)।
किन्तु उपर्युक्त अन्य वचनों से ऐसा आभास मिलता है कि सिद्धसेनगणी तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार, इन दोनों व्यक्तियों को एक मानते थे। किन्तु एक मानना एक होने का प्रमाण नहीं है। तथा उनके अन्य उल्लेखों से इस बात में सन्देह भी पैदा होता है। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं कि "उन्होंने
११५. तत्त्वार्थसूत्र / विवेचनसहित / प्रस्तावना / पृ. १५ । ११६. वही/ पृ. १६।
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