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________________ अ०१४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १४९ ग्रन्थलेखक ने अपराजितसूरि के उपुर्यक्त वचनों का अनुशीलन नहीं किया, इसीलिए उन्हें यह भ्रान्ति हुई है कि अपवादलिंग की उक्त परिभाषा पं० कैलाशचन्द्र जी ने अपने मन से गढ़ी है। "जो लिंग मुनियों के लिए अपवाद अर्थात् निन्दा का कारण होता है, वह अपवादलिंग है" (वि.टी./ भ. आ./ गा.७६) इस परिभाषा से ही अपराजितसूरि ने स्पष्ट कर दिया है कि अपवादलिंग मुनियों का लिंग नहीं है, क्योंकि यदि उस परिग्रहसहित लिंग को मुनि ने अपना लिया, तो लोग उसकी निन्दा करेंगे कि यह है तो गृहस्थ, लेकिन अपने को मुनि कहता फिरता है। परिग्रह पाप का कारण है, मूर्छा का हेतु है, रागद्वेष का निमित्त है, अतः संसार का कारण होने से हेय है। उस हेय वस्तु को ग्रहण करनेवाला मोक्षमार्गी कैसे हो सकता है? और मुनि कैसे कहला सकता है? इस तरह अपवादलिंग पद में अपवाद (निन्दा) शब्द से ही टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह मुनिलिंग नहीं है, अपितु मुनियों के लिए जो अपवाद का कारण है, ऐसा श्रावक लिंग है। यतः अपराजितसूरि ने ही परिग्रहसहित लिंग को अपवादलिंग कहा है, अतः सिद्ध है कि उनके अनुसार वह श्रावकों का ही लिंग है, मुनियों का नहीं। १.८. प्रशस्तलिंगादिवालों का भी सचेललिंग अपवादलिंग-पूर्वोक्त ग्रन्थलेखक ने, न केवल अपवादलिंग की सही परिभाषा को भ्रान्तिपूर्ण बतलाया है, अपितु स्वाभीष्ट असंगत परिभाषा को ग्रन्थकारकृत परिभाषा के रूप में प्ररूपित भी किया है। पूर्वोद्धत वक्तव्य में उन्होंने कहा है-"मूल ग्रन्थ और टीका में अपवादलिंग का तात्पर्य लिंग, अण्डकोष आदि में दोष होने पर या सम्भ्रान्तकुल का एवं लज्जालु होने पर वस्त्रयुक्त रहकर भी मुनिचर्या करना है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१५८)। यह भी सर्वथा असत्य कथन है। शिवार्य और अपराजितसूरि, दोनों ने कहीं भी लिंगदोषादि होने पर मुनि के वस्त्रधारण को अपवादलिंग नहीं कहा है। उन्होंने तो प्रशस्त (दोषरहित ) और अप्रशस्त (दोषयुक्त), दोनों प्रकार के लिंगवाले (पुरुषचिह्नवाले) पुरुषों के वस्त्रधारण को अपवादलिंग बतलाया है। देखिए ___ "औत्सर्गिकलिङ्गस्थितस्य भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषवतः तदेव प्राग्गृहीतं लिङ्गमौत्सर्गिकम्। 'अववादियलिंगस्स वि'---(अपवादिकलिङ्गस्यापि औत्सर्गिकंलिङ्गं भवति) यदि प्रशस्तं शोभनं लिङ्गं मेहनं भवेत्। चर्मरहितत्वमतिदीर्घत्वं स्थूलत्वमसकृदुत्थानशीलतेत्येवमादिदोषरहितं यदि भवेत्। पुंस्त्वलिङ्गतेह गृहीतेति बीजयोरपि लिङ्गशब्देन ग्रहणम्। अतिलम्बमानादिदोषरहितता प्रशस्ततापि तयोर्गृहीता।". (वि.टी./ गा. 'उस्सग्गिय' ७६)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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