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१४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४/प्र०२ अपवाद नामों का प्रयोग औपचारिकता मात्र है। दिगम्बर-परम्परा में उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग शब्दों का प्रयोग सार्थक है, क्योंकि उसमें यह माना गया है कि उत्सर्गलिंग से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है, अपवादलिंग से नहीं। अतः उत्सर्गमार्ग को ग्राह्य और अपवादमार्ग को त्याज्य बतलाया गया है। यह भगवती-आराधना के निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट है
अववादियलिंगकदो व विसयासत्तिं अगूहमाणो य।
जिंदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो॥ ८६॥ अनुवाद-"अपवादलिंगधारी पुरुष भी यदि अपनी शक्ति को न छिपाते हुए और अपनी निन्दा-गर्दा करते हुए परिग्रह का त्याग कर देता है, तो शुद्ध हो जाता है।"
तात्पर्य यह कि परिग्रहरूप अपवादलिंग को त्यागने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस कथन से स्पष्ट है कि अपवादलिंग निन्दनीय, गर्हणीय और त्याज्य होता है, क्योंकि उससे वह मोक्षरूप फल प्राप्त नहीं होता, जो उत्सर्गमार्ग से प्राप्त होता है।
__ अपवादलिंग का यह लक्षण स्पष्ट कर देता है कि यापनीय-परम्परा द्वारा मान्य सचेल मुनिलिंग अपवादलिंग नहीं है, अपितु वैकल्पिक लिंग है, क्योंकि उससे भी मोक्षरूप फल की प्राप्ति उसी प्रकार मानी गयी है, जैसे अचेल मुनिलिंग से। इसी कारण उसे त्याज्य नहीं माना गया है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि सचेल गृहस्थलिंग ही अपवादलिंग है।
१.७. परिग्रहसहितलिंग अपवादलिंग-'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने भी श्रीमती पटोरिया के वचन का अनुसरण करते हुए कहा है कि "भगवती-आराधना और उसकी टीका में जिस अपवादलिंग की चर्चा है, वह मुनि का अपवादलिंग है, गृहस्थ का नहीं माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी ने शब्दों को तोड़मरोड़कर उसे गृहस्थलिंग बताने का प्रयास किया है।" (देखिए , पूर्वोद्धृत वक्तव्य-जै. ध. या. स./पृ.१५७-१५८। यहाँ उक्त वक्तव्य का सार दिया गया है)। पं० कैलाशचन्द्र जी ने अपराजितसूरि के अनुसार उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग की जो परिभाषा बतलाई है, उसे भी ग्रन्थलेखक ने पंडितजीकृत परिभाषा मानकर भ्रान्तिपूर्ण घोषित कर दिया है, जबकि वह अपराजितसूरि कृत ही है। अपराजितसूरिकृत वह परिभाषा पूर्व में उद्धृत की जा चुकी है।
इससे सिद्ध है कि अपराजितसूरि ने ही परिग्रहसहितलिंग को अपवादलिंग कहा है, न कि पं० कैलाशचन्द्र जी ने। अतः ग्रन्थलेखक का आरोप मिथ्या है। वस्तुतः
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