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________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १४७ त्याज्यान्जस्त्रं विषयान्पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते॥ २/१॥ अनुवाद-"अरहन्तों तथा सकलचारित्रधारी मुनियों को नमस्कार करके मुनिधर्मानुरागी गृहस्थों के धर्म का प्रतिपादन किया जा रहा है।" (१/१)। "जो पुरुष जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश को सुनकर विषयों को निरन्तर त्याज्य समझता हुआ भी चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से उन्हें त्यागने में समर्थ नहीं होता, उसके लिए गृहस्थधर्म-पालन की अनुमति दी जाती है।" (२/१)। ___इन वचनों से ज्ञात होता है कि दिगम्बरपरम्परा में गृहस्थधर्म का उपदेश उसे दिया जाता है, जो मुनिधर्म में अनुराग रखते हुए भी उसे पालन करने में असमर्थ होता है। किन्तु यह मोक्ष का मार्ग नहीं है, अपितु मुनिधर्म का साधक है। इसलिए इसे तब तक के लिए ग्रहण कराया जाता है, जब तक मुमुक्षु मुनिधर्म ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो जाता। मुनिधर्म ग्रहण करने का सामर्थ्य आ जाने पर यह त्याज्य होता है। इस कारण गृहस्थधर्म या गृहस्थलिंग अपवादलिंग है। १.६. विकल्प और अपवाद में अन्तर-लगता है कि यापनीयपक्षी विद्वानों ने विकल्प और अपवाद को समानार्थी समझ लिया है। किन्तु दोनों में महान् अंतर है। वैकल्पिक मार्ग वह है, जो समान फलदायी दो मार्गों में से रुचि के अनुसार स्थायीरूप से चुना जाय। अपवादमार्ग वह कहलाता है जो उत्सर्गमार्ग का ग्रहण संभव न होने पर तब तक के लिए ग्रहण किया जाय, जब तक उत्सर्गमार्ग को ग्रहण करने की क्षमता नहीं आ जाती। अर्थात् जो असामान्य परिस्थिति में ग्राह्य होता है और सामान्य परिस्थिति में त्याज्य, उसे अपवादमार्ग कहते हैं, जैसे सदा के लिए त्याज्य गृहस्थधर्म तब तक के लिए ग्राह्य होता है, जब तक उसे त्यागने की शक्ति नहीं आ जाती। वैकल्पिक मार्ग त्याज्य नहीं होता, क्योंकि उससे भी वही परिणाम प्राप्त हो सकता है, जो उसके प्रतिपक्षीमार्ग से। किन्तु अपवादमार्ग त्याज्य होता है, क्योंकि उससे वह परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता, जो उत्सर्गमार्ग से संभव है। यदि अपवादमार्ग से भी वही परिणाम संभव हो, तो वह अपवादमार्ग नहीं कहलायेगा, उत्सर्ग हो जायेगा। फिर दो उत्सर्ग मार्ग मिलकर दो वैकल्पिक मार्ग बन जायेंगे। तब उनमें यह भेद भी नहीं किया जा सकेगा कि यह उत्सर्ग है और यह अपवाद। इस स्थिति में उत्सर्ग और अपवाद शब्दों का प्रयोग ही निरर्थक हो जायेगा। यापनीय-परम्परा में अचेल और सचेल लिंग वैकल्पिक मार्गों के रूप में मान्य हैं, उत्सर्ग और अपवाद मार्गों के रूप में नहीं, क्योंकि दोनों से मोक्षरूप समान परिणाम की प्राप्ति, मानी गयी है। इसलिए श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में उत्सर्ग और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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