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________________ १४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ अपवाद होता है, क्योंकि जिसमें वस्त्रादि सकलपरिग्रह का त्याग कर नग्न होने की क्षमता है, उसके लिए नग्न होने के बाद मुनि रहते हुए कभी भी वस्त्रधारण रूप अपवादलिंग की आवश्यकता नहीं होती। यदि आवश्यकता होती है, तो वह मुनिपद से च्युत होकर गृहस्थ बन जाता है। .. अपराजितसूरि द्वारा प्ररूपित अपवादलिंग का यह लक्षण डॉक्टर सा० की मान्यता के विपरीत है। यह उन्हें खुले हृदय से स्वीकार करना चाहिए, किन्तु अपराजितसरि की मान्यता को अपनी मान्यता के अनुरूप प्ररूपित करना न्यायसंगत नहीं है। १.५. मुनिधर्म उत्सर्ग, श्रावकधर्म अपवाद-यह ध्यान देने योग्य है कि दिगम्बरमत में अचेल उत्सर्गलिंग और सचेल अपवादलिंग का विधान मुनि के लिए नहीं है, अपितु मुमुक्षु के लिए है। जो मोक्ष का अभिलाषी गृहस्थ है, उसे मुख्यतः मुनिधर्म का ही उपदेश दिया जाना चाहिए, ऐसा आप्तवचन है, क्योंकि वही वास्तविक मोक्षमार्ग है। चूंकि मुनिधर्म अचेललिंगवाला है, इसलिए अचेललिंग को उत्सर्गलिंग कहा गया है। किन्तु जब मुमुक्षु मुनिधर्म का उपदेश सुनकर भी उसे ग्रहण करने में असमर्थ होने से ग्रहण नहीं करता, तब उसे देशव्रतरूप सचेल श्रावकधर्म का उपदेश देने के लिए कहा गया है। श्रावकधर्म का पालन उसे मुनिधर्मपालन के योग्य बनाता है, अतः मोक्ष की दृष्टि से उपयोगी है। और यह श्रावकधर्म मुनिधर्म ग्रहण करने में असमर्थ पुरुषों को तब तक के लिए ग्रहण कराया जाता है, जब तक वे मुनिधर्म ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो जाते। मुनिधर्म ग्रहण करने में समर्थ हो जाने पर यह त्याज्य होता है, अतः अपवादरूप है। इस पर प्रकाश डालते हुए आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहते हैं बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति। तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ॥ १७॥ यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्॥ १८॥ अनुवाद-"जो जीव महाव्रतों का बार-बार उपदेश दिये जाने पर भी उन्हें ग्रहण नहीं करता, उसे अणुव्रतों का उपदेश देना चाहिए , क्योंकि अणुव्रत महाव्रतों के साधक हैं। जो अल्पमति उपदेष्टा मुनिधर्म का उपदेश न देकर गृहस्थधर्म का उपदेश देता है, उसे आगम में दण्डनीय बतलाया गया है।" .. पण्डितप्रवर आशाधरजी ने भी सागारधर्मामृत में कहा है अथ नत्वाऽर्हतोऽक्षण-चरणान् श्रमणानपि। तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते॥ १/१॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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