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________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १४५ दर्शा देता है कि श्रीमती पटोरिया का परिग्रह-धारण को यति का अपवादलिंग मानना कितना अतर्क-संगत है! यह अतर्कसंगतता सिद्ध करती है कि लेखिका की मान्यता शिवार्य और अपराजितसूरि के मत के विरुद्ध है। १.४. वस्त्रधारी गृहस्थ ही वस्त्रधारी श्वेताम्बर साधु बनता है-डॉ० सागरमल जी का कथन है कि "गृहस्थ तो सदैव वस्त्रयुक्त होता है। जो वस्त्रधारी ही है, उसके लिए वस्त्रधारण अपवाद कैसे हो सकता है?" (जै. ध. या. स. / पृ. १५८)। इसका उत्तर बड़ा युक्तिसंगत है। वह यह है कि श्वेताम्बर और यापनीय स्थविरकल्पी साधु भी सदैव वस्त्रयुक्त होते हैं। वे दीक्षा के पूर्व भी वस्त्रधारी होते हैं, दीक्षा के समय भी और दीक्षा के बाद भी। ऐसा नहीं है कि वे जन्म से लेकर दीक्षा के पूर्व तक नग्न रहते हों और दीक्षा के समय वस्त्र धारण कर लेते हों। इस प्रकार वे सदैव वस्त्रधारी होते हैं। अतः जैसे सदैव वस्त्रधारी होते हुए भी श्वेताम्बरयापनीय-स्थविरकल्पी-साधुओं के लिए वस्त्रधारण अपवाद हो सकता है, वैसे ही सदैव वस्त्र धारण करनेवाले गृहस्थों के लिए भी वस्त्रधारण अपवाद हो सकता है। दूसरी बात यह है कि अपराजितसूरि ने सदा वस्त्रधारण करने वाले गृहस्थों के ही लिंग को अपवादलिंग कहा है। यथा "उत्कर्षेण सर्जनं त्यागः सकलपरिग्रहस्य उत्सर्गः। उत्सर्गे सकलग्रन्थपरित्यागे भवं लिङ्गमौत्सर्गिकम्।---यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः। अपवादो यस्य विद्यत इत्यपवादिकं परिग्रहसहितं लिङ्गमस्येत्यपवादिकं लिङ्गं भवति।" (वि.टी./ भ. आ. / गा. 'उस्सग्गियलिंग' ७६)। अनुवाद-"उत्कृष्टरूप से सर्जन अर्थात् सकलपरिग्रह का त्याग उत्सर्ग कहलाता है। उत्सर्ग अर्थात् सकलपरिग्रह के त्याग से होनेवाले लिंग को औत्सर्गिक लिंग कहते हैं। मुनियों के अपवाद (निन्दा) का कारण होने से परिग्रह की अपवाद संज्ञा है। जिसके परिग्रह हो वह अपवादिक है अर्थात् परिग्रहसहित लिंगवाला अपवादिकलिंगी होता है।" इस कथन में अपराजितसूरि ने परिग्रहसहित लिंग को ही अपवादलिंग कहा है। परिग्रहसहितलिंग गृहस्थों का ही होता है। इसका प्रबल प्रमाण यह है कि अपराजितसूरि ने वस्त्रादिपरिग्रहधारी पुरुष के मुनि (संयत) होने का निषेध किया है-"नैव संयतो भवति इति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (वि.टी. /गा. 'ण य होदि संजदो' १११८)। अतः अपराजितसूरि ने सदा वस्त्रधारण करनेवाले गृहस्थ के वस्त्रधारण को ही अपवाद कहा है। इस आर्षवचन से भी सिद्ध है कि जो सदा वस्त्रधारण करता है, उसके लिए वस्त्रधारण अपवाद हो सकता है। बल्कि उसके लिए ही वस्त्रधारण Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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