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________________ अ० १८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५९५ "यहाँ प्रो० साहब द्वारा कल्पित इस श्लोषार्थ के सुघटित होने में दो प्रबल बाधाएँ हैं । एक तो यह कि जब वीतकलंक से अकलंक का और विद्या से विद्यानन्द का अर्थ ले लिया गया तब दृष्टि और क्रिया दो ही रत्न शेष रह जाते हैं और वे भी अपने निर्मल-निर्दोष अथवा सम्यक् जैसे मौलिक विशेषण से शून्य । ऐसी हालत में श्लेषार्थ के साथ जो निर्मल ज्ञान अर्थ भी जोड़ा गया है, वह नहीं बन सकेगा और उसके न जोड़ने पर वह श्लेषार्थ ग्रन्थसन्दर्भ के साथ असङ्गत हो जायगा, क्योंकि ग्रन्थभर में तृतीय पद्य से प्रारम्भ करके इस पद्य के पूर्व तक सम्यक्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप तीन रत्नों का ही धर्मरूप से वर्णन है, जिसका उपसंहार करते हुए ही इस उपान्त्य पद्य में उनको अपनानेवाले के लिये सर्व अर्थ की सिद्धिरूप फल की व्यवस्था की गई है, इसकी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया। दूसरी बाधा यह है कि त्रिषु विष्टपेषु पदों का अर्थ जो 'तीनों स्थलों पर' किया गया है, वह सङ्गत नहीं बैठता, क्योंकि अकलंकदेव का राजवार्तिक और विद्यानन्द का श्लोकवार्तिक ग्रन्थ ये दो ही स्थल ऐसे हैं, जहाँ पर पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थवृत्ति) शब्दशः तथा अर्थतः पाई जाती है। तीसरे स्थल की बात मूल के किसी भी शब्द पर से उसका आशय व्यक्त न करने के कारण नहीं बनती। यह बाधा जब प्रो० साहब के सामने उपस्थित की गई और पूछा गया कि 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ जो 'तीनों स्थलों पर' किया गया है, वे तीन स्थल कौन से हैं, जहाँ पर सर्व अर्थ की सिद्धिरूप 'सर्वार्थसिद्धि' स्वयं प्राप्त हो जाती है? तब प्रोफेसर साहब उत्तर देते हुए लिखते हैं " मेरा ख्याल था कि वहाँ तो किसी नई कल्पना की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि वहाँ उन्हीं तीन स्थलों की सङ्गति सुस्पष्ट है, जो टीकाकार ने बतला दिये हैं अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चरित्र, क्योंकि वे तत्त्वार्थसूत्र के विषय होने से सर्वार्थसिद्धि में तथा अकलंङ्कदेव और विद्यानन्द की टीकाओं में विवेचित हैं और उनका ही प्ररूपण रत्नकरण्डकार ने किया है । " १३६ (जै. सा. इ. वि.प्र./खं.१/पृ.४७३-४७५)। " यह उत्तर कुछ भी संगत मालूम नहीं होता, क्योंकि टीकाकार प्रभाचन्द्र ने 'त्रिषु विष्टपेषु' का स्पष्ट अर्थ 'त्रिभुवनेषु' पद के द्वारा 'तीनों लोक में' दिया है। उसके स्वीकार की घोषणा करते हुए और यह आश्वासन देते हुए भी कि उस विषय में टीकाकार से भिन्न " किसी नई कल्पना की आवश्यकता नहीं" टीकाकार का अर्थ न देकर 'अर्थात्' शब्द के साथ उसके अर्थ की निजी नई कल्पना को लिये हुए अभिव्यक्ति करना और इस तरह 'त्रिभुवनेषु' पद का अर्थ दर्शन, ज्ञान और चारित्र बतलाना अर्थ का अनर्थ करना अथवा खींचतान की पराकाष्ठा है। इससे उत्तर की १३६. अनेकान्त / वर्ष ८ / किरण ३ / ५. १३० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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