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________________ ५९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ संगति और भी बिगड़ जाती है, क्योंकि तब यह कहना नहीं बनता कि सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओं में दर्शन, ज्ञान और चारित्र विवेचित हैं, प्रतिपादित हैं, बल्कि यह कहना होगा कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र में सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाएँ विवेचित हैं, प्रतिपादित हैं, जो कि एक बिल्कुल ही उल्टी बात होगी। और इस तरह आधार-आधेयसम्बन्धादि की सारी स्थिति बिगड़ जायगी, और तब श्लेषरूप में यह भी फलित नहीं किया जा सकेगा कि अकलङ्क और विद्यानन्द की टीकाएँ ऐसे कोई स्थल या स्थानविशेष हैं, जहाँ पर पूज्यपाद की टीका सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती है। "इन दोनों बाधाओं के सिवाय श्लेष की यह कल्पना अप्रासंगिक भी जान पड़ती है, क्योंकि रत्नकरण्ड के साथ उसका कोई मेल नहीं मिलता, रत्नकरण्ड तत्त्वार्थसूत्र की कोई टीका भी नहीं, जिससे किसी तरह खींचतान कर उसके साथ कुछ मेल बिठलाया जाता, वह तो आगम की ख्याति को प्राप्त एक स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ है, जिसे पूज्यपादादि की उक्त टीकाओं का कोई आधार प्राप्त नहीं है और न हो सकता है। और इसलिये उसके साथ उक्त श्लेष का आयोजन एक प्रकार का असम्बद्ध प्रलाप ठहरता है अथवा यों कहिये कि 'विवाह तो किसी का और गीत किसी के' इस उक्ति को चरितार्थ करता है। यदि विना सम्बन्धविशेष के केवल शब्दछल को लेकर ही श्लेष की कल्पना अपने किसी प्रयोजन के वश की जाय और उसे उचित समझा जाय, तब बहुत कुछ अनर्थों के सङ्घटित होने की सम्भावना है। उदाहरण के लिये स्वामिसमन्तभद्र-प्रणीत जिनशतक के उपान्त्य पद्य (नं० ११५) में भी 'प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा' इस वाक्य के अन्तर्गत 'सर्वार्थसिद्धि' पद का प्रयोग पाया जाता है और ६१वें पद्य में तो 'प्राप्य सर्वार्थसिद्धिं गां' इस वाक्य के साथ उसका रूप और स्पष्ट हो जाता है, उसके साथवाले 'गां' पद का अर्थ वाणी लगा लेने से वह वचनात्मिका 'सर्वार्थसिद्धि' हो जाती है। इस ‘सर्वार्थसिद्धि' का वाच्यार्थ यदि उक्त श्लेषार्थ की तरह पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि' लगाया जायगा, तो स्वामी समन्तभद्र को भी पूज्यपाद के बाद का विद्वान् कहना होगा और तब पूज्यपाद के 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' इस व्याकरणसूत्र में उल्लिखित समन्तभद्र चिन्ता के विषय बन जायेंगे तथा और भी शिलालेखों, प्रशस्तियों तथा पट्टावलियों आदि की कितनी ही गड़बड़ उपस्थित हो जायगी। अतः सम्बन्धविषय को निर्धारित किये बिना केवल शब्दों के समानार्थ को लेकर ही श्लेषार्थ की कल्पना व्यर्थ है। - "इस तरह जब श्लेषार्थ ही सुघटित न होकर बाधित ठहरता है, तब उसके आधार पर यह कहना कि "रत्नकरण्ड के इस उल्लेख पर से निर्विवादतः सिद्ध हो जाता है कि वह रचना न केवल पूज्यपाद के पश्चात्कालीन है, किन्तु अकलंक और विद्यानन्द से भी पीछे की है" कोरी कल्पना के सिवाय और कुछ भी नहीं Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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