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________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५९७ है। उसे किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता, रत्नकरण्ड के 'आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्य' पद्य का न्यायावतार में पाया जाना भी इसमें बाधक है। वह केवल उत्तर के लिये किया गया प्रयास मात्र है और इसी से उस को प्रस्तुत करते हुए प्रो० साहब को अपने पूर्वकथन के विरोध का भी कुछ ख्याल नहीं रहा, जैसा कि मैं इससे पहले द्वितीयादि आपत्तियों के विचार की भूमिका में प्रकट कर चुका हूँ। "यहाँ पर एक बात और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि प्रो० साहब श्लेष की कल्पना के बिना उक्त पद्य की रचना को अटपटी और अस्वाभविक समझते हैं, परन्तु पद्य का जो अर्थ ऊपर दिया गया है और जो आचार्य प्रभाचन्द्रसम्मत है, उससे पद्य की रचना में कहीं भी कुछ अपटपटापन या अस्वाभाविकता का दर्शन नहीं होता है। वह बिना किसी श्लेषकल्पना के ग्रन्थ के पूर्व कथन के साथ भले प्रकार सम्बद्ध होता हुआ ठीक उसके उपसंहाररूप में स्थित है। उसमें प्रयुक्त हुए 'विद्या', 'दृष्टि' जैसे शब्द पहले भी ग्रन्थ में ज्ञान-दर्शन जैसे अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, उनके अर्थ में प्रो० साहब को कोई विवाद भी नहीं है। हाँ, 'विद्या' से श्लेषरूप में 'विद्यानन्द' अर्थ लेना यह उनकी निजी कल्पना है, जिसके समर्थन में कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया, केवल नाम का एकदेश कहकर उसे मान्य कर लिया है। १३७ तब प्रो० साहब की दृष्टि में पद्य की रचना का अटपटापन या अस्वाभाविकपन एकमात्र वीतकलंक शब्द के साथ केन्द्रित जान पड़ता है, उसे ही सीधे वाच्य-वाचक-सम्बन्ध का बोधक न समझकर आपने उदाहरण में प्रस्तुत किया है। परन्तु 'सम्यक' शब्द के लिये अथवा उसके स्थान पर 'वीतकलंक' शब्द का प्रयोग छन्द तथा स्पष्टार्थ की दृष्टि से कुछ भी अटपटा, असंगत या अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि 'कलंक' का सुप्रसिद्ध अर्थ 'दोष' है।३८ और उसके साथ में 'वीत' १३७. जहाँ तक मुझे मालूम है संस्कृतसाहित्य में श्लेषरूप से नाम का एकदेश ग्रहण करते हुए पुरुष के लिये उसका पुंल्लिंग अंश और स्त्री के लिये स्त्रीलिंग अंश ग्रहण किया जाता है, जैसे 'सत्यभामा' नाम की स्त्री के लिये 'भामा' अंश का प्रयोग होता है न कि सत्य अंश का। इसी तरह 'विद्यानन्द' नाम का 'विद्या' अंश, जो कि स्त्रीलिंग है, पुरुष के लिये व्यवहत नहीं होता। चुनाँचे प्रो० साहब ने श्लेष के उदाहरणरूप में जो 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्तया' नामका पद्य उद्धृत किया है, उसमें विद्यानन्द का 'विद्या' नाम से उल्लेख न करके पूरा ही नाम दिया है। विद्यानन्द का 'विद्या' नाम से उल्लेख का दूसरा कोई भी उदाहरण देखने में नहीं आता। १३८. 'कलङ्कोऽङ्के कालायसमले दोषापवादयोः।' विश्वलोचन कोश। दोष के अर्थ में कलंक शब्द के प्रयोग का एक सुस्पष्ट उदाहरण इस प्रकार है- . अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक्वित्तसम्भवम्। कलङ्कमङ्किनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ १५॥ ज्ञानार्णव। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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