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७१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२१/प्र०२ दिगम्बरपक्ष
हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्तिनिषेध आदि यापनीयमत-विरोधी प्रबल प्रमाणों की उपलब्धि से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ है। एकमात्र नारद के चरमशरीरी होने का कथन उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि के निषेध उसके यापनीयग्रन्थ होने का निषेध करते हैं। अतः नारद के चरमशरीरी होने का कथन यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म नहीं है। इसलिए उसमें हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का हेतुत्व नहीं है, अत एव वह हेत्वाभास है।
यह सत्य है कि अन्य दिगम्बरपुराणों में नारद को नरकगामी माना गया है। किन्तु दिगम्बराचार्यों में भी कई जगह मतभेद देखे जाते हैं। जैसे किसी दिगम्बरपुराण में दुर्योधन को मोक्षगामी माना गया है, किसी में नरकगामी। इसी प्रकार हरिवंशपुराण में यदि नारद को मोक्षगामी कहा गया है, तो इससे ग्रन्थ का दिगम्बरत्व बाधित नहीं होता, क्योंकि उसमें स्त्रीमुक्तिनिषेध आदि दिगम्बरत्व के साधक मौलिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन है।
यापनीयपक्ष
हरिवंशपुराण के अनुसार "ब्रह्मस्वर्ग से बलदेव का जीव श्रीकृष्ण के जीव को नरक से लेने जाता है। उस समय श्रीकृष्ण का जीव भरतक्षेत्र में बलदेव और श्रीकृष्ण की मूर्तिपूजा का प्रचार करने के लिए कहता है। और बलदेव का जीव वही करता है। श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों सम्यग्दृष्टि जीव थे, उनके द्वारा मिथ्यात्व का प्रचार विचारणीय है।"२७ (या.औ.उ.सा./१५०)। दिगम्बरपक्ष
ऐसा लगता है कि 'यापनीय और उनका साहित्य' ग्रन्थ की लेखिका की दृष्टि से इस प्रकार के मिथ्यात्व का प्रचार यापनीयमत का विशिष्ट सिद्धान्त है, इसीलिए उन्होंने इस हेतु के द्वारा हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। किन्तु यापनीयमत का यह विशिष्ट सिद्धान्त उन्हें किस यापनीयग्रन्थ में देखने को मिला, इस पर उन्होंने प्रकाश नहीं डाला।
भले ही ग्रन्थलेखिका के अनुसार उक्त मिथ्यात्व के प्रचार की प्रेरणा यापनीयमत के अनुकूल हो, तथापि उसके उल्लेख से हरिवंशपुराण यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता,
२७. देखिए , पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य की हरिवंशपुराण-प्रस्तावना / पृ. १७-१८ ।
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