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________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ९ हैं, अपितु सकलपरिग्रहाभाव और सकलपरिग्रहसद्भाव के वाचक हैं। अतः उत्सर्गलिंग का अर्थ है परिग्रहरहित-लिंग अर्थात् मुनिलिंग और अपवादलिंग का अर्थ है परिग्रहसहितलिंग अर्थात् श्रावकलिंग। इन अर्थों को भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है "उत्कर्षेण सर्जनं त्यागः सकलपरिग्रहस्य उत्सर्गः। उत्सर्गे सकलग्रन्थपरित्यागे भवं लिङ्गमौत्सर्गिकम् ---- । यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः, अपवादो यस्य विद्यते इत्यपवादिकं परिग्रहसहितं लिङ्गमस्येत्यपवादिकलिङ्गं भवति।" (वि.टी./ भ.आ./गा. 'उस्सग्गियलिंग' ७६)। अनुवाद-"उत्कृष्टरूप से सर्जन अर्थात् सकल परिग्रह का त्याग उत्सर्ग कहलाता है। उत्सर्ग से अर्थात् सकलपरिग्रह के त्याग से होनेवाले लिंग को औत्सर्गिक-लिंग कहते हैं। ---मुनियों के अपवाद (निन्दा) का कारण होने से परिग्रह की अपवाद संज्ञा है। अपवाद जिसके पास हो वह अपवादिक है अर्थात् परिग्रहसहित-लिंगवाला अपवादिकलिंगी होता है।" इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है कि भगवती-आराधना में सकलपरिग्रह-रहितलिंग को उत्सर्गलिंग एवं परिग्रहसहित-लिंग को अपवादलिंग कहा गया है। यहाँ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात ध्यान देने योग्य है। टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि कि मुनियों को निन्दा का पात्र बनाने के कारण परिग्रह अपवाद कहलाता है। अतः परिग्रहसहितलिंग धारण करनेवाले को अपवादिक-लिंगी कहा गया है। ये शब्द इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं कि भगवती-आराधना में उल्लिखित अपवादलिंग श्रावकलिंग का वाचक है, मुनिलिंग का नहीं। श्वेताम्बर एवं यापनीय मतों में स्थविरकल्पी साधुओं के वस्त्रपात्रादि को परिग्रह नहीं माना गया है, अपितु संयमोपकरण माना गया है।११ अतः अपराजित सूरि द्वारा सपरिग्रहलिंग को अपवादलिंग कहे जाने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना में श्रावकलिंग को ही अपवादलिंग कहा गया है। १.२.२. गृहिभाव का सूचक लिंग अपवादलिंग-भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथा में उत्सर्गलिंग के स्वरूप का वर्णन किया गया है अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं। एसो हु लिंगकप्पो चदुव्विहो होदि उस्सग्गे॥ ७९॥ भ.आ.। ११. यत्संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम्। धर्मस्य हि तत्साधनमतोऽन्यदधिकरणमाहाऽर्हन्॥ १२॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण। अधिकरणम् = परिग्रहः। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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