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________________ ८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ इससे स्पष्ट हो जाता है कि शिवार्य मोक्ष के लिए वस्त्रादि-सर्व-परिग्रह-त्याग को सर्वप्रथम आवश्यक मानते हैं, अर्थात् उन्हें सवस्त्रमुक्ति मान्य नहीं है। यदि मान्य होती तो वे वस्त्रादिपरिग्रह को परलोक को बिगाड़नेवाला न कहते। ___ निम्नलिखित गाथा में वस्त्रादित्याग के बिना मुनि-पद की प्राप्ति असंभव बतलायी गयी है ण य होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं। तम्हा आचेलक्कं चाओ सव्वेसि होइ संगाणं॥ १११८॥ भ.आ.। अनुवाद-"मात्र वस्त्र का त्याग करने से और शेष परिग्रह रखने से जीव संयत (मुनि) नहीं होता। इसलिए आचेलक्य में समस्तपरिग्रह का त्याग गर्भित है।" इस गाथा की 'विजयोदया' टीका में अपराजित सूरि ने यह भी स्पष्ट किया है कि महाव्रतों का कथन करनेवाले सूत्र इस बात के ज्ञापक हैं कि आचेलक्य शब्द द्वारा सर्वपरिग्रह के त्याग का उपदेश दिया गया है। अर्थात् अपरिग्रह-महाव्रत वस्त्रपात्रादिसमस्तपरिग्रह के त्याग से निष्पन्न होता है, अतः वस्त्रपात्रादि धारण करनेवाला कोई भी पुरुष महाव्रती नहीं हो सकता। इस प्रकार ग्रन्थकार और टीकाकार दोनों ने वस्त्रपात्रादि-सर्वसंगत्याग के बिना मुनिपद या महाव्रतित्व की प्राप्ति असंभव बतलाकर सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया है। १.२. श्रावक का लिंग अपवादलिंग शिवार्य के सवस्त्र-मुक्ति-निषेधक होने का एक बलवान् प्रमाण यह है कि जहाँ यापनीयमत में मुनियों के लिए अचेल और सचेल, इन दो लिंगों का विधान किया गया है, वहाँ शिवार्य ने मुनियों के लिए मात्र अचेललिंग का नियम बतलाया है और मुनियों के अचेललिंग को उत्सर्गलिंग तथा श्रावकों के सचेललिंग को अपवादलिंग संज्ञा दी है। इस तरह उन्होंने श्वेताम्बरों की इस मान्यता को निरस्त किया है कि मुनियों के भी स्थविरकल्प के रूप में अपवादलिंग होता है। शिवार्य ने श्रावक के ही लिंग को अपवादलिंग नाम दिया है, यह उनके द्वारा प्रतिपादित उत्सर्ग और अपवाद की निम्नलिखित परिभाषाओं से सिद्ध होता है १.२.१. सपरिग्रह एवं मुनिनिन्दा-कारणभूत लिंग अपवादलिंग-भगवतीआराधना में उत्सर्ग और अपवाद शब्द सामान्यनियम एवं विशेषनियम के वाचक नहीं १०."किं च महाव्रतोपदेशप्रवृत्तानि च सूत्राणि ज्ञापकानि सर्वसङ्गत्यागः आचेलक्कमित्यत्र निर्दिष्ट इत्यस्य।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा. १११८ / पृ. ५७४। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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