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________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ७ "नियोगतो मुमुक्षूणां यत्कर्त्तव्यतया स्थितं तत्स्थितमुच्यते स्थितकल्प: स्थितप्रकारः।" (वि. टी./भ.आ. / गा. 'देसामासियसुत्तं' १११७)। तात्पर्य यह कि शिवार्य ने आचेलक्य को स्थितकल्प या स्थितिकल्प कहकर यह सूचित किया है कि वस्त्रत्याग किये बिना कोई भी मुमुक्षु 'मुनि' नहीं कहला सकता। यह भगवती-आराधना में सवस्त्रमुक्तिनिषेध का ज्वलन्त प्रमाण है। और आचेलक्य (नग्नता) शब्द से केवल वस्त्रत्याग अभिप्रेत नहीं है, वह तो उपलक्षण है। अतः उससे वस्त्र, पात्र, आभूषण, धन-धान्य आदि समस्त परिग्रह का त्याग सूचित किया गया है। इसका स्पष्टीकरण भगवती-आराधनाकार ने निम्नलिखित गाथा में किया है देसामासियसुत्तं आचेलक्कंति तं ख ठिदिकप्पे। लुत्तोत्थ आदिसहो जह तालपलंबसुत्तम्मि॥ १११७॥ भ.आ.। अनुवाद-"दस स्थितिकल्पों में जो आचेलक्य कल्प है वह देशामर्शक सूत्र है अर्थात् एकदेश का कथन कर सम्पूर्ण को सूचित करनेवाला शब्द है। इसे उपलक्षण कहते हैं। अभिप्राय यह कि 'आचेलक्य' में चेल शब्द परिग्रह का उपलक्षण है, अर्थात् वह चेल के अतिरिक्त पात्र, दण्ड आदि समस्त परिग्रह का सूचक है। अतः 'आचेलक्य' का अर्थ समस्त परिग्रह का त्याग है। जैसे तालप्रलम्ब (ताड़वृक्ष की शाखा) शब्द में 'आदि' शब्द विलुप्त है, तो भी उससे सभी प्रकार की वनस्पतियों का द्योतन होता है, वैसे ही चेल शब्द में 'आदि' शब्द का अभाव है, फिर भी वह समस्त परिग्रह का द्योतक है।" अपराजितसूरि ने यह अर्थ निम्नलिखित व्याख्या द्वारा ज्ञापित किया है"चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलग्रन्थत्याग आचेलक्यशब्दस्यार्थः।"९ अनुवाद-"चेल शब्द का प्रयोग परिग्रह का उपलक्षण है, इसलिए सकल परिग्रह का त्याग 'आचेलक्य' शब्द का अर्थ है।" आचेलक्यरूप प्रथम स्थितिकल्प को समस्त मुमुक्षुओं के लिए अनिवार्य बतलाते हुए शिवार्य कहते हैं चेलादिसव्वसंगच्चाओ पढमो हु होदि ठिदिकप्यो। इहपरलोइयदोसे सब्वे आवहदि संगो हु॥ १११६॥ भ.आ.। अनुवाद-"वस्त्रादि सर्व परिग्रह का त्याग प्रथम स्थितिकल्प है, अर्थात् मुमुक्षुओं के लिए अनिवार्यतया पालनीय सर्वप्रथम आचार है, क्योंकि परिग्रह इस लोक और परलोक, दोनों लोकों को बिगाड़नेवाले दोष ढोकर लाता है।" ९. विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा.१११७ / पृ. ५७६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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