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________________ ६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ दिगम्बरग्रन्थ होने के अन्तरंग प्रमाण . यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन सवस्त्रमुक्तिनिषेध १.१. आचेलक्य मुनि का अनिवार्य प्रथम धर्म ___ यापनीयमत में मुनियों के लिए अचेललिंग के साथ सचेललिंग भी स्वीकार किया गया है, किन्तु भगवती-आराधना में एकमात्र अचेललिंग का ही विधान है। उसकी निम्नलिखित गाथा में कहा गया है कि जो आचार्य सदा दस प्रकार के स्थितिकल्प में स्थित रहता है, वह आचारवान् है। वह आचार्य समिति-गुप्तिरूप प्रवचन-माताओं में तत्पर रहता है दसविहठिदिकप्पे वा हवेज जो सुट्टिदो सयायरिओ। आयारवं खु एसो पवयणमादासु आउत्तो॥ ४२२॥ भ.आ.। वे दस स्थितिकल्प इस प्रकार हैं आचेलक्कुद्देसिय- सेज्जाहर-रायपिंडकिरियम्मे। वद-जेट्ठ-पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो॥ ४२३॥ भ.आ.। अनुवाद-"आचेलक्य (नग्नता), औदेशिक (उद्दिष्ट भोजन) का त्याग, शय्यागृह का त्याग, राजपिण्ड (राजा के आहार या राजस आहार) का त्याग, कृतिकर्म (गुरु की विनय-सेवा करना), व्रत, ज्येष्ठता (आर्यिका की अपेक्षा मुनि की ज्येष्ठता) का पालन, प्रतिक्रमण, मासकल्प (छह ऋतुओं में एक-एक मास से अधिक एक स्थान पर न ठहरना), पर्युषणाकल्प (वर्षाकाल में एक स्थान पर चार-मास तक निवास करना), ये दस स्थितिकल्प हैं।"८ 'कल्प' का अर्थ है साध्वाचार ("कल्पः साध्वाचारः"-कल्पसूत्र/कल्पप्रदीपिकावृत्ति/ गाथा १) और स्थिति का अर्थ है नियोगतः अर्थात् अनिवार्यतया पालन करने योग्य (नियोगः = अनिवार्यता / आप्टे-संस्कृत-हिन्दी-कोश)। इस प्रकार स्थितिकल्प का अर्थ है मुनि के लिए अनिवार्यतया पालन करने योग्य आचार, जैसा कि अपराजित सूरि ने स्पष्ट किया है ८. इन के अर्थों का प्रतिपादन प्रस्तुत गाथा की विजयोदया टीका में किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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