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________________ १० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ अनुवाद-"अचेलता, केशलोच, शरीर से ममत्वाभाव और प्रतिलेखन (पिच्छी रखना), ये चार उत्सर्गलिंग के लक्षण हैं।" इसके बाद इस लिंग के ग्रहण से होनेवाले लाभों का वर्णन करते हुए भगवतीआराधनाकार कहते हैं जत्तासाधुचिह्नकरणं खु जगपच्चयादठिदिकरणं। . गिहिभावविवेगो वि य लिंगग्गहणे गुणा होंति॥ ८१॥ भ.आ.। अनुवाद-"उत्सर्गलिंग के ग्रहण से ये चार लाभ होते हैं-१. आहारदान की पात्रता सूचित होती है,१२ २. लोगों में मोक्षमार्ग के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है,१३ ३. स्वभाव में स्थित होने की प्रेरणा मिलती है१४ और ४. मुनि के गृहस्थ से भिन्न होने का ज्ञापन होता है।"१५ यहाँ शिवार्य ने कहा है कि अचेलत्वरूप उत्सर्गलिंग धारण करने से मुनि गृहस्थ से भिन्न दिखता है। उन्होंने यह नहीं कहा कि अपवादलिंग ग्रहण करने से भी गृहस्थ से भिन्न दिखता है। इससे सिद्ध है कि वे अपवादलिंग को गृहस्थ का ही लिंग मानते हैं। इस प्रकार शिवार्य ने यह प्रतिपादित किया है कि गृहिभाव (गृहस्थत्व) का सूचक लिंग अपवादलिंग है। १.२.३. मुक्ति के लिए त्याज्य लिंग अपवादलिंग-नीचे उद्धत गाथा में शिवार्य ने मुक्ति के लिए त्यागे जाने योग्य लिंग को अपवादलिंग नाम दिया है। अपवादलिंग साक्षात् मुक्ति का हेतु नहीं है। उसे त्यागने पर ही मुक्ति संभव है। इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए टीकाकार अपराजित सूरि ने निम्नलिखित उत्थानिका के साथ उक्त गाथा का वर्णन किया है १२. "यात्रा शरीरस्थितिहेतुभूता भुजिक्रिया। तस्याः साधनं यल्लिङ्गजातं चिह्नजातं तस्य करणम्। न हि गृहस्थवेषेण स्थितो गुणीति सर्वजनताधिगम्यो भवति। अज्ञातगुणविशेषाश्च दानं न प्रयच्छन्ति। ततो न स्याच्छरीरस्थितिः।---गुणवत्तायाः सूचनं लिङ्गं भवति।" वि.टी./भ.आ./ गा.८१ / पृ.११६। १३. "ननु श्रद्धा प्राणिधर्मः। अचेलतादिकं शरीरधर्मो लिङ्गम्। तत्किमुच्यते लिङ्गं जगत्प्रत्यय इति? सकलसङ्गपरिहारो मार्गो मुक्तेः इत्यत्र भव्यानां श्रद्धां जनयति लिङ्गमिति जगत्प्रत्यय इत्यभिहितम्। न चेत् सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तिलिङ्गं किमिति नियोगतोऽनुष्ठीयते इति?" वि.टी./ भ.आ./ गा.८१/ पृ. ११६-११७। १४. "आत्मनः स्वस्य अस्थिरस्य स्थिरतापादनम्। क्व मुक्तिवर्मनि व्रजने। किं मम परित्यक्त वसनस्य रागेण रोषेण मानेन मायया लोभेन वा। वसनाग्रेसराः सर्वा लोकेऽलङ्क्रियाः तच्च निरस्तम्। को मम रागस्य अवसर इति?---।" वि. टी./ भ. आ. /गा. ८१ / पृ.११७। १५. "गृहित्वात् पृथग्भावो दर्शितो भवति।" वि.टी./भ. आ./गा.८१/पृ.११७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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