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________________ १६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ आगे चलकर श्रुतसागरसूरि को अपनी भूल का बोध हुआ है । इसलिए उन्होंने दंसणपाहुड की टीका में अपवादलिंग धारण करनेवाले को मिथ्यादृष्टि घोषित कर दिया । देखिए " अपवादवेषं धरन्नपि मिथ्यादृष्टिर्ज्ञातव्य इत्यर्थः । कोऽपवादवेषः ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति । तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनामित्यपवादवेषः। तथा नृपादिवर्गोत्पन्नः परमवैराग्यवान् लिङ्गशुद्धिरहित उत्पन्नमेहनपुटदोषो लज्जावान् वा शीताद्यसहिष्णुर्वा तथा करोति सोऽयमप्यपवादलिङ्गः प्रोच्यते । उत्सर्गवेषस्तु नग्न एवेति ज्ञातव्यम् । 'सामान्योक्तौ विधिरुत्सर्गो विशेषोक्तौ विधिपरवाद' इति परिभाषणात्। " ( दंसणपाहुड / टीका / गा.२४ )। अनुवाद- -" अपवादवेष धारण करते हुए भी मुनि को मिथ्यादृष्टि ही जानना चाहिए। वह अपवादवेष क्या है? कलिकाल में म्लेच्छादि लोग नग्नरूप देखकर मुनियों पर उपसर्ग करते हैं । इसलिए मण्डपदुर्ग में श्री वसन्तकीर्ति स्वामी ने संयमियों को यह उपदेश दिया कि चर्या आदि के समय चटाई आदि के द्वारा शरीर को ढँक लेना चाहिए और चर्या के बाद उसे छोड़ देना चाहिए। तथा राजा आदि विशिष्ट वर्ग में उत्पन्न पुरुष यदि उत्कृष्ट वैराग्य से युक्त होता है, परन्तु लिंगशुद्धिरहित होने अथवा लिंग के चर्मरहित होने से नग्न होने में लज्जा का अनुभव करता है, तो वह वस्त्रधारण कर सकता है अथवा जो शीतादि सहने में असमर्थ है, उसे वस्त्र धारण करने की छूट है। यह अपवादलिंग कहलाता है । उत्सर्गवेश तो नग्नत्व ही है । सामान्य स्थिति का नियम उत्सर्ग कहलाता है और विशेष स्थिति का नियम अपवाद । इस तरह पूर्व में जिस अपवादलिंग को भ्रम से भगवती आराधना या अपराजित सूरि का अभिप्राय मानकर श्रुतसागरसूरि ने मुनि के लिए उचित बतलाया था, उसे यहाँ अनुचित बतलाया । उसे धारण करनेवाले मुनि को यहाँ मिथ्यादृष्टि घोषित किया है। इसका तात्पर्य यह है कि श्रुतसागरसूरि की दृष्टि में अपवादलिंग मुनियों का लिंग नहीं है, अपितु क्षुल्लक, एलक आदि श्रावकों का लिंग है। यदि श्रावक उसे धारण करें, तो वे मिथ्यादृष्टि नहीं होंगे, किन्तु यदि मुनि धारण करेगा, तो वह मिथ्यादृष्टि होगा । निष्कर्ष यह कि अपराजितसूरि ने विशेष परिस्थितियों में मुनि के लिए वस्त्रधारण करने की अनुमति का उल्लेख करनेवाले श्वेताम्बर - आगमों के जो उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, उनका उद्देश्य यह प्रदर्शित करना है कि श्वेताम्बरमत में भी वस्त्रधारण की अनुमति शारीरिक और मानसिक अयोग्यतावश वस्त्रत्याग संभव न होने के कारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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