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________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६७ दी गई है, मोक्षमार्ग होने के कारण नहीं। जिन मुमुक्षुओं के लिए वस्त्रत्याग संभव नहीं हैं, उन्हें सवस्त्र अवस्था में ही स्व-योग्यतानुसार व्रतादि का अभ्यास करना चाहिए, ताकि इस भव या परभव में वस्त्रत्याग-योग्य अवस्था प्राप्त होने पर मोक्षमार्गभूत अचेलत्व को अंगीकार किया जा सके। श्वेताम्बर-आगमों से उद्धृत उक्त वचनों के विषय में श्रुतसागरसूरि को यह भ्रम हो गया था कि उनके द्वारा अपराजितसूरि ने मुनियों के लिए अपवादरूप से वस्त्रधारण का समर्थन किया है। यह भूल इसलिए हुई कि श्रुतसागरसूरि ने अपराजितसूरि द्वारा कहे गये उन वचनों पर ध्यान नहीं दिया, जिनमें उन्होंने सचेललिंग को केवल श्रावकों का अपवादलिंग बतलाया है और परिग्रहात्मक होने के कारण मुनियों के लिए निन्दा का हेतु कहा है। उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि वस्त्रधारी को अपराजितसूरि ने मुनि ही नहीं माना और स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मुक्ति का अभिलाषी वस्त्रग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मोक्ष का मार्ग नहीं है। ___ जिन आधुनिक विद्वानों ने अपराजितसूरि को यापनीय माना है, उन सबने श्रुतसागर सूरि की भूल दुहरायी है। २.७. दिगम्बर आगमों का प्रामाण्य स्वीकार्य-अपराजितसूरि ने सर्वत्र दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थों को ही प्रमाण माना है। उदाहराणार्थ, भगवती-आराधना की 'णाणस्स दंसणस्स य सारो' (११) इस गाथा में जो यह भाव व्यक्त किया गया है कि 'मोहनीयजनित कलंक से रहित यथाख्यातचारित्र ज्ञान और दर्शन का सातिशयरूप है' इसे उन्होंने प्रवचनसार की 'चारित्तं खलु धम्मो' (१/७) इस गाथा के द्वारा प्रमाणित किया है। इसी प्रकार 'जो वस्तु ज्ञान का विषय नहीं बनती, वह रागद्वेष का निमित्त नहीं होती' ('सज्झायं कुव्वंतो' गा.१०३) इस कथन की सत्यता पञ्चास्तिकाय की 'गदिमधिगदस्स देहो' (१२९) इस गाथा के अर्थ से सिद्ध की है। इसी प्रकार 'संजममाराहंतेण' (६) गाथा में आये संयम शब्द के पर्यायवाची चारित्र का लक्षण सर्वार्थसिद्धि (१/१) के निम्न वाक्य से पुष्ट किया है-"(यथा चाभ्यधायि-) कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो ज्ञानवतश्चारित्रमिति।" भगवती-आराधना के ऐसे अनेक कथन समयसार, बारस-अणुवेक्खा, मूलाचार, सर्वार्थसिद्धि, पञ्चास्तिकाय आदि दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थों से उद्धरण देकर प्रमाणित किये गये हैं। ये सात प्रमाण सिद्ध करते हैं कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों के सचेलमुक्ति-प्रतिपादक वचनों का निरसन कर एकान्त-अचेलमुक्तिवाद की स्थापना की है तथा दिगम्बर-आगमोक्त वचनों से भगवती-आराधना के कथनों का समर्थन किया है। अतः उनके विषय में जो यह कहा गया है कि उन्हें श्वेताम्बर-आगमों का प्रामाण्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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